कांग्रेस पार्टी को कैसे समझें?

राजनीति राष्ट्रीय

– प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

जब तक हम अपने राजनैतिक दलों और संस्थाओं को सम्यक रूप से नहीं समझते, v तब तक राजनीति के विषय में सारी समझ दोषपूर्ण और भ्रामक रहेगी। इसलिये यह बहुत आवश्यक है कि सम्पूर्ण ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में प्रत्येक राजनैतिक दल को समझा जाये।
1 नवम्बर 1858 ईस्वी को इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया ने घोषणा की कि आज से मेरा भतीजा केनिंग ब्रिटिश भारतीय क्षेत्र का वायसराय होगा और हमारी भारत के राजाओं से जो संधि हुई है, उसके अनुसार हम अपने मित्र राजाओं की सीमा में कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे और उसके अभिषेक और उत्तराधिकार की प्रथा में भी हमारी कोई भूमिका नहीं होगी। अपने मित्र भारतीय राजाओं से हमारी अपेक्षा यही है कि वे भी हमारी सीमा में कोई हस्तक्षेप नहीं करें तथा मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखें। इसके बाद लगभग आधे भारत में पहली बार 90 वर्षों के लिये ब्रिटिश शासन हुआ। स्पष्ट रूप से यह शासन मैत्रीपूर्ण था और भारतीय राजाओं की सहमति से था। जिसमें सबसे बड़ी संख्या हिन्दू राजाओं की ही थी। हिन्दू राजाओं के निरंतर सहयोग के बिना ब्रिटिश शासन आधे भारत में एक दिन के लिये भी नहीं टिक सकता था।
इसके पहले ईस्ट इंडिया कंपनी नामक इंग्लैंड की एक मामूली सी कंपनी ने गुंडो, लफंगों और बेरोजगार आवारा छोकरों को लालच देकर कंपनी में रखा था और उनसे यहाँ लूटपाट कराते थे जिनमें वारेन हेस्टिंग्स और क्लाइव जैसे लफंगे भी थे जिन्हें भारत के कतिपय मूर्ख लोग अपना लार्ड और भारत के गवर्नर जनरल बताते हैं। जबकि वे लोग स्वयं को ईस्ट इंडिया कंपनी का महाप्रबंधक (गवर्नर जनरल) मात्र कहते थे।
जैसा हेस्टिंग्स पर लंदन में ब्रिटिश संसद में लगाये गये अभियोगों में सप्रमाण कहा गया था, कंपनी के इन लफंगे कर्मचारियों ने भारत के नीचतम लोगों को साथ लेकर छलकपट, जालसाजी, हत्यायें और धोखाधड़ी तथा जाली मुकदमे, जाली वकील और जाली कोर्ट चलाये और विरोधियों को फांसी दी। कंपनी की इस गुंडागर्दी के विरूद्ध भारत के अनेक तेजस्वी राजाओं एवं रानियों ने महारानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में लफंगों को मार भगाने का अभियान चलाया। परन्तु इस बीच अनेक भारतीय राजाओं ने ब्रिटिश शासन से सीधा संबंध स्थापित कर लिया था और उनके साथ मैत्री करके वे विश्व में अपना प्रभावक्षेत्र बढ़ाना चाहते थे। इसी संबंध का लाभ उठाकर ब्रिटिश शासन नवंबर 1858 में पहली बार भारत के लगभग आधे भाग का शासन मुख्यतः हिन्दुओं और कतिपय मुसलमानों के सहयोग से संभालने में सफल हुये और 90 वर्षों तक मुख्यतः हिन्दुओं तथा साथ ही मुसलमानों के सहयोग से भारत में ब्रिटिश भारतीय प्रशासन चलाया गया। परंतु इस सम्पूर्ण अवधि में इंग्लैंड लगातार डरता रहा और थर-थर कांपता रहा और कभी भी अपने भगाये जाने के विषय में आशंकित रहा। इसीलिये गौरक्षिणी सभाओं तक के गठन से वह भयभीत था और रानी विक्टोरिया की गोपनीय चिट्ठी जो हमने अपनी पुस्तक में दी है, उससे स्पष्ट है कि गौरक्षिणी सभाओं से स्वयं विक्टोरिया भयभीत थी और सम्पूर्ण ब्रिटिश भारतीय शासन भयभीत था कि इनके द्वारा जगाये गये जनमत से हमें कभी भी अचानक 1857 के अभियान से भी अधिक शक्तिशाली अभियान द्वारा भगाया जा सकता है। इसलिये उन्होंने प्रभावशाली भारतीयों से मैत्री और संबंध स्थापित किये।
अब इसमें मुख्य बात यह है कि अधिकांश भारतीय राज्यों को इंग्लैंड द्वारा भारतीय वस्त्रों, कालीमिर्च आदि मसालों तथा भारतीय अन्न और मेवों आदि एवं भारतीय शिल्प की सामग्री खरीदे जाने से बहुत लाभ हो रहा था। त्रावणकोर कोचीन राज्य के पद्मनाभ मंदिर का तथ्य अब सर्वविदित है। परन्तु अन्य राज्यों को भी इस प्रकार के व्यापार से बहुत लाभ हो रहा था। यद्यपि इंग्लैंड तथा अन्य यूरोपीय देशों के खरीददार माल की खरीदी में बहुत ज्यादा सौदेबाजी और छल भी करते थे तब भी उस व्यापार से भारतीयों को बहुत लाभ हो रहा था। इससे ईर्ष्यावश विशेषकर इंग्लैंड ने अनेक प्रत्यक्ष अत्याचार किये और साथ ही देश के भीतर व्यापार के मामले में बहुत ऊंची चुंगीदरें लगाकर मनमानी वसूली भी शुरू की। इसी प्रकार रेललाइनों और सड़कों के निर्माण में अपने इलाके में बंधुआ मजदूरों से काम कराया तथा भारतीय श्रमिकों पर उसी प्रकार के अत्याचार शुरू कर दिये जो वे इंग्लैंड में कर रहे थे और जिनका उल्लेख कार्ल मार्क्स ने अपनी महान कृति ‘पूँजी’ के अनेक अध्यायों में किया है।
यहाँ उल्लेखनीय है कि भारत के विराट आकार को वर्तमान शिक्षित हिन्दू कुशिक्षा के कारण पूरी तरह भूले रहते हैं। मूल रूप में भारत सम्पूर्ण यूरोप से बड़ा है। अतः इसके अनेक राज्य यूरोप के विविध राज्यों इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, पुर्तगाल, हालैंड, नीदरलैंड, डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, स्विटजरलैंड आदि से तुलनीय है। शिक्षित भारतीयों ने आधुनिक शिक्षा से जो राष्ट्रभाव ग्रहण किया, वह स्वयं में बड़ी चीज है। परन्तु उसे लेकर मूर्खतापूर्ण कल्पनायें अतीत पर प्रक्षेपित करना दयनीय बुद्धिहीनता है।
लंबे समय से भारत का कोई चक्रवर्ती सम्राट नहीं था और अनेक स्वयं को मुसलमान कहने वाले दुष्ट और कुटिल लड़ाकू लोग अनेक हिन्दू राजाओं और वीरों का सहयोग लेकर अन्य हिन्दू राजाओं को हराकर उनके राज्य पर हिन्दू-मुस्लिम साझा शासन कर रहे थे। परन्तु फिर भी लगभग तीन चौथाई भारत पूरी तरह हिन्दुओं के शासन में था। अतः सभी हिन्दू राजा मर्यादा से रह रहे थे और अन्य राज्यों में हस्तक्षेप नहीं कर रहे थे। इसीलिये संधि के बाद उन्होंने ब्रिटिश भारतीय राज्य में भी हस्तक्षेप नहीं किया। इसका लाभ उठाकर अंग्रेजों ने रेल तथा सड़क निर्माण एवं अन्य कार्यों में तथा लगान की वसूली आदि में भी भीषण मनमानी और अत्याचार किये। अनेक भारतीय राजाओं ने इसीलिये अपने क्षेत्र में रेललाइने बनाने की अनुमति शुरू में नहीं दी। क्योंकि रेल बनाने का ठेका प्रायः अंग्रेज लोग लेते थे और फिर वे बंधुआ मजदूरी कराते थे, जिससे प्रजा में हाहाकार मच जाता था।
स्वयं 20वीं शताब्दी ईस्वी में जिन राज्यों का शासन पूरी तरह हिन्दू शासक कर रहे थे उनमें मुख्य है – बड़ौदा, ग्वालियर, इंदौर, जम्मू, मेवाड़-उदयपुर, मैसूर, भरतपुर, जयपुर, बीकानेर, जोधपुर, अलवर, धौलपुर, डूंगरपुर, किशनगढ़, जैसलमैर, सिरोही, प्रतापगढ़, झालावाड़, रीवा, कच्छ, दतिया, देवास जूनियर, देवास सीनियर, धार, ओरछा, रतलाम, बांसवाड़ा, भावनगर, जूनागढ़, कोल्हापुर, पटियाला, बनारस, चरखारी, टिहरी-गढ़वाल, चंबा, मण्डी, सुकैत, सिरमौर, बिलासपुर, फरीदकोट, कपूरथला, त्रिपुरा, नाभा, त्रावणकोर, कोचीन, अजयगढ़, छतरपुर, नरसिंहगढ़, झाबुआ, पन्ना, राजगढ़, बिजावर, समथर, सीतामऊ, बड़वानी, मोरबी, बाकानेर, पुदुकोट्टई, मणिपुर, नागौद, मैहर, छोटा उदयपुर, जगदलपुर, मयूरभंज, कालाहांडी, सोनेपुर, पाटणा, भोर, ध्रोल, लिमड़ी, पलिटाणा, राजकोट, सांगली आदि। इसके अतिरिक्त 500 से अधिक छोटे हिन्दू राज्य थे और हैदराबाद, भोपाल, जूनागढ़ जैसे बड़े मुस्लिम राज्य तथा लगभग 120 छोटी-छोटी मुस्लिम जागीरें थीं। इनमें से एक में भी अंग्रेजों का शासन नहीं था। स्वयं अंग्रेजों ने अपने समय का ब्रिटिश शासन का जो मानचित्र छापा है उससे यह बात भली-भांति स्पष्ट होती है कि जैसा आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के उस प्रसिद्ध प्रकाशन में कहा गया है जिसका उल्लेख प्रो. कुसुमलता केडिया जी ने अपने यूट्यूब वीडियो में किया है, वस्तुतः ब्रिटिश शासन भारत में जगह-जगह किसी गूदड़ी की थिगलियों के समान था और एक हिस्से से अपने दूसरे हिस्से में जाने के लिये उसे प्रायः किसी हिन्दू राज्य या किसी मुस्लिम रियासत की अनुमति लेनी होती थी। इसीलिये उन्हें सदा भारतीय राजाओं से मैत्री रखनी पड़ी और सबसे अनुरोध करके अपने यहाँ पॉलीटिकल एजेंट रखवाने पड़े जो अंग्रेजों को उनके हित के विषय में सूचनायें देते रहते थे।
इस प्रकार भारत एक दिन के लिये भी पराधीन नहीं रहा। परन्तु ब्रिटिश भारतीय क्षेत्र में अंग्रेजी शिक्षा का ऐसा आभामंडल खड़ा किया गया और उसके प्रभाव में आने वाले लोगों को भी सर आदि उपाधियाँ देकर महिमामंडित किया गया कि तत्कालीन सम्पन्न और महत्वाकांक्षी हिन्दू लोग तथा मुसलमान भी बढ़-चढ़कर अंग्रेजों जैसे दिखने या उनसे मैत्री करने की होड़ करने लगें। इनमें से जो लोग लंदन शिक्षा प्राप्त करने जाने लगे (लंदन पहुँचकर अंग्रेजों की पोल जानकर उन्हें मार भगाने की योजना वाले क्रांतिकारियों को छोड़कर), वे लोग उन दिनांे लंदन और समूचे इंग्लैंड की प्रदूषित हवा, चारों तरफ छाये कोयले और धुंध, दमघोंटू वातावरण, भीषण गंदगी, गलियों में फेकी जा रही टट्टी और मल से प्रदूषित पानी पीने की मजबूरी की सच्चाई छिपाकर केवल लंदन की महिमा ही प्रस्तुत करते रहे। स्वयं गांधीजी ने अंग्रेजों को प्रसन्न करने के लिये भारतीय गंदगी की बात की और स्वयं को स्वच्छता का महाप्रवर्तक प्रस्तुत किया।
सार यह है कि लंदन जाकर पढ़ने वाले नेता कोई सामान्य सुशिक्षित नागरिक नहीं थे अपितु राजनैतिक महत्वाकांक्षा वाले लोग थे और इनको साथ लेकर ही 1885 ईस्वी में कांग्रेस की स्थापना की गई। कांग्रेस की यह पृष्ठभूमि जाने बिना उसे राष्ट्र की मुख्य राजनैतिक अभिव्यक्ति मानने से बहुत भ्रम फैलता है। प्रारंभ में कांग्रेस अंग्रेजों के सहयोग से भारत में साधन-सुविधायें जुटाने के इच्छुक महत्वाकांक्षी भारतीयों की संस्था थी। यह तथ्य सर्वविदित है। इसीलिये प्रारंभ में उसकी कार्यवाहियाँ केवल अंग्रेजी में होती थीं और ब्रिटिश शासन को दी जाने वाली अर्जी वाले प्रस्ताव पारित होते थे।
क्रांतिकारियों की गतिविधियों से घबराकर ब्रिटिश भारतीय प्रशासकों ने अपने मित्र राजपूत राजाओं से सलाह कर ब्रिटिश भारत की राजधानी कोलकाता से हटाकर दिल्ली ले जाने को निश्चय 1911 ईस्वी में किया। परंतु विधिवत वह राजधानी 1932 ईस्वी में ही बन सकी। उसके पहले एक पहाड़ी की तलहटी में एक इलाके में वायसराय ने अपना लॉज बनाया। जहाँ सैनिक टुकड़ी भी रखी गई। बाद में 1922 ईस्वी में हिन्दू कॉलेज के सामने दिल्ली विश्वविद्यालय खोला गया और कैम्ब्रिज से पढ़कर आये सर हरिसिंह गौर को 5 वर्षों के लिये दिल्ली विश्वविद्यालय का वाईस चांसलर बनाया गया। गौर साहब को ही नागपुर और सागर विश्वविद्यालयों का भी कुलपति बनाया गया था। क्योंकि वे कैम्ब्रिज के मेधावी छात्र थे। 1932 ईस्वी में वायसराय ने अपना लॉज दिल्ली विश्वविद्यालय को दे दिया और तब तक लुटियन द्वारा बनाई गई नई दिल्ली में नया वायसराय भवन बन गया था जो अब राष्ट्रपति भवन है। अतः व्यवस्थित रूप से भारत की राजधानी दिल्ली 1932 ईस्वी में ही बनी और 15 वर्षों बाद अंग्रेजों को यहाँ से भागना पड़ा।
भारत में अपना शासन सुनिश्चित और सुरक्षित करने के लिये अंग्रेजों ने बहुत बुद्धि चलाई। उन्हांेने मुस्लिम अलगाववाद को योजना पूर्वक बढ़ाया और दूसरी ओर ब्रिटिश ईसाई शिक्षा के द्वारा नौशिक्षित वर्ग में ब्रिटिश निष्ठा का उभार हुआ।
1878 ईस्वी के इंडियन आर्म्स एक्ट के बाद सशस्त्र वीरता की परिधि सीमित हो गई और तब ब्रिटिश भारतीय क्षेत्र में बुद्धिबल से अंग्रेजों को घेरने का काम शुरू हुआ और तब से कांग्रेस में तेजस्वी भारतीयों ने प्रवेश कर राष्ट्रीय चेतना को बढ़ाने का अभियान तेज किया जिसमें लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय और श्री विपिनचन्द्र पाल आदि अग्रणी रहे। इनके प्रवेश से कांग्रेस पहली बार एक राष्ट्रीय पार्टी बनने लगी। इस प्रकार कांग्रेस के विविध चरणों के विषय में और उसके चरित्र में आये परिवर्तन तथा मोड़ के विषय में भलीभांति जानना चाहिये। (क्रमशः)

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