मानवधर्म का उल्लंघन करने वाला व्यक्ति शासन द्वारा दंडनीय है

राष्ट्रीय राजनीति

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
भीष्म पितामह ने राजधर्म की प्रधानता और महत्व को प्रतिपादित करते हुये अगले अध्याय 60 में यह स्पष्ट किया कि समान्य धर्म, साधारण धर्म, सार्ववर्णिक धर्म या मानव धर्म का पालन तो प्रत्येक मनुष्य को करना ही चाहिये।
उन्होंने बताया कि ये नौ कार्य सभी के कर्तव्य हैं –
अक्रोधः सत्यवचनं संविभागः क्षमा तथा।
प्रजनः स्वेषु दारेषु शौचमद्रोह एव च।।7।।
आर्जवं भृत्यभरणं नवैते सार्ववर्णिकाः।8 का पूर्वार्द्ध।
अर्थात ये 9 कर्तव्य सभी वर्णों के लिये अनिवार्य हैं – पर्याप्त कारण के बिना किसी पर क्रोध नहीं करना, सत्य वचन बोलना, सम्पत्ति का न्यायोचित बंटवारा, क्षमा करने योग्य अपराधों के प्रति क्षमाभाव रखना, अपनी ही पत्नी से संतान की उत्पत्ति, बाहरी और भीतरी पवित्रता और किसी भी प्राणी के प्रति द्रोहभाव नहीं रखना, मन की सरलता तथा आश्रितों का भरणपोषण। ये वस्तुतः मानवधर्म हैं। मनुष्य मात्र के द्वारा पालनीय हैं।
मानवधर्म का उल्लंघन करने वाला प्रत्येक व्यक्ति शासन द्वारा दंडनीय है। इसलिये शासकों को धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित मानवधर्म का ज्ञान अवश्य रखना चाहिये। इसके साथ ही वर्णों और आश्रमों के धर्म तथा विशिष्ट कार्यक्षेत्रों के अपने-अपने धर्मों के विषय में भी शासन को ज्ञान रखना चाहिये। क्योंकि उसके आधार पर ही न्याय हो सकता है। इस क्रम में ही पितामह बताते हैं कि इन सामान्य धर्मों के साथ ही ब्राह्मण को इन्द्रिय संयम अन्यों से अधिक करना चाहिये तथा वेदों और शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिये। अगर यह सब करते हुये समाज के सद्गृहस्थों द्वारा ब्राह्मण को दान दिया जाये तो उस दान से अथवा ब्राह्मणोचित कर्म करने के फलस्वरूप प्राप्त धन से परिवार पालने का सामर्थ्य आ जाने पर विवाह करे और संतान पैदा करे अथवा विवाह का मन ना हो तो दान से प्राप्त समस्त धन को अन्य सुपात्र को दान कर दे तथा यज्ञ में लगा दे।
क्षत्रिय को दान तो करना चाहिये परंतु दान की याचना कभी नहीं करना चाहिये, यज्ञ करना चाहिये परंतु दूसरों का यज्ञ पुरोहित बनकर नहीं करना चाहिये। अध्ययन करे परंतु अध्यापन न करे। धर्म का उल्लंघन करने वालों और लुटेरों, डाकुओं तथा दस्युओं का वध करने के लिये सदा तत्पर रहे और युद्धभूमि में पराक्रम प्रकट करने के लिये भी सदा तत्पर रहे। जो क्षत्रिय शरीर पर घाव हुये बिना ही समर भूमि से लौट आता है, उसकी प्रशंसा इतिहासवेत्ता लोग कभी भी नहीं करते। इसीलिये युद्ध ही क्षत्रियों का प्रधान धर्म है। सनातन धर्म को बाधित करने वाले तथा वर्णाश्रम धर्म का पालन कर रहे सद्गृहस्थों के जीवन में एवं ब्रह्मचारियों तथा वानप्रस्थियों और सन्यासियों के जीवन में किसी भी प्रकार का विघ्न डालने वाले दस्युओं का संहार क्षत्रिय का श्रेष्ठतम कर्म है। राजा और कुछ कर्म या ना करें, यदि वह प्रजापालन और प्रजा का रक्षण करता है तो इसी से वह परिनिष्ठित कार्य अर्थात् कृतकृत्य माना जाता है।
वैश्यों को सदा उद्योगशील रहना चाहिये और कृषि पशुओं का तथा अपनी सम्पत्ति का पालन करना चाहिये। धर्मपूर्वक क्रय और विक्रय का व्यापार करना चाहिये और अनाजों, फसलों तथा बीजों की रक्षा करना चाहिये। इसी प्रकार परिचर्या कर्म करने वालों को सेवाकर्म भलीभांति करना चाहिये। धर्मात्मा शूद्र राजाज्ञा के अनुसार कोई भी धार्मिक कृत्य कर सकता है। सभी लोगों को सदा शूद्र के भरण-पोषण को अपना कर्तव्य मानना चाहिये और उन्हें अन्न, वस्त्र तथा आवश्यक सामानों की कभी भी कमी नहीं होने देना चाहिये। अपनी सेवा में उपस्थित शूद्र की आजीविका की व्यवस्था करना धर्मकर्तव्य है, ऐसा धर्मवेत्ताओं का कथन है। अगर कोई स्वामी संतानहीन मर जाये तो उसका पिंडदान भी सेवक शूद्र को ही करना चाहिये। अपने स्वामी का किसी भी स्थिति में परित्याग नहीं करना चाहिये। अगर किसी कारण स्वामी के धन का नाश हो जाये तो अब तो उसे जो धन मिला है, उससे कुटुंब पालन के बाद बचे हुये धन से अशक्त हुये स्वामी का भी भरण पोषण करना चाहिये।
चारों वर्णों को यज्ञ करना चाहिये
यज्ञ चारांे वर्णों का धर्म है सभी धर्म के वर्णों के लोगों को यज्ञ करना चाहिये। परंतु शूद्र के यज्ञ में स्वाहा, वषट्कार तथा वैदिक मंत्रों का प्रयोग नहीं होता है। ऐसे अनेक शूद्र हुये हैं जिन्होंने इन मंत्रों के बिना विधिपूर्वक यज्ञ किये हैं और दक्षिणा के रूप में ब्राह्मणों को हजारों या एक लाख तक पूर्णपात्र दान किये हैं। सभी वर्ण के लोगों ने यज्ञों का अनुष्ठान किया है और उनसे मनोवांछित फल प्राप्त किया है। इसीलिये सभी वर्ण यज्ञ कराने वाले ब्राह्मणों को देवता ही मानते हैं।
ब्राह्मणों के निर्देशानुसार ही यज्ञों का अनुष्ठान
ब्राह्मणों के निर्देशानुसार ही यज्ञों का अनुष्ठान किया जाता है। इसके साथ मानसिक संकल्प द्वारा भावनात्मक यज्ञ भी किये जाते हैं। जिनमें सभी वर्णों का अधिकार है। वह यज्ञ भी श्रद्धा के कारण परम पवित्र होता है।
ब्राह्मणों के साथ सबकी अभिन्नता
वस्तुतः सभी वर्ण ब्राह्मणों से ही उत्पन्न हुये हैं और इसलिये मूल रूप में तो सभी वर्ण ब्राह्मणों के ज्ञाति ही हैं। इसीलिये ब्राह्मणों के साथ सबकी अभिन्नता है। सभी को ब्राह्मण का सम्मान करना चाहिये। अभिन्नता का द्योतक अध्याय 60 का अंतिम 47वां श्लोक इस प्रकार है –
तस्माद् वर्णा ऋजवो ज्ञातिवर्णाः
संसृज्यन्ते तस्य विकार एव।
एकं साम यजुरेकमृगेका
विप्रश्चैको निश्चये तेषु सृष्टः।।
अर्थात भगवान ने तीनांे वर्णों की सृष्टि ब्राह्मणों से ही की है। अतः शेष तीन वर्ण भी वस्तुतः ब्राह्मणों के ही विकार हैं। अर्थात आचरण और अध्ययन संबंधी न्यूनता एवं स्खलन के कारण शास्त्र के अनुसार ये वर्ण अन्यत्व को प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार एक ओंकार से ही ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद तीनों की सृष्टि है, उसी प्रकार एक ब्राह्मण वर्ण से ही शेष तीन वर्णों की विकृति पूर्वक निष्पत्ति है। अतः आध्यात्मिक स्तर पर ब्राह्मण के साथ उनकी सबकी अभिन्नता है क्यांेकि सभी रूप मूलतः ब्राह्मण से ही प्रकट हुये हैं। इसीलिये श्रद्धा ही प्रधान है – ‘श्रद्धा वै कारणं महत्।’
इसके बाद पितामह भीष्म ने सभी आश्रमों के धर्म की भी विवेचना की। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदाध्ययन पूर्ण करना चाहिये। यदि ब्रह्मचारी के मन में मोक्ष की तीव्र अभिलाषा जग जाये तो उसे सीधे ही सन्यास ग्रहण करने का अधिकार होता है। अन्यथा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिये। शुभ कर्मों का अनुष्ठान करना और पत्नी के साथ न्यायोचित भोग भोगना तथा संतान उत्पन्न करना गृहस्थ आश्रम का धर्म है। गृहस्थ आश्रमी को देवताओं और पितरों की तृप्ति के लिये हव्य और कव्य समर्पित करने में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। निरंतर अन्नदान करना चाहिये और शेष तीनों आश्रमों का पालन करना चाहिये तथा यज्ञ याग आदि में प्रवृत्त रहकर ईर्ष्या, द्वेष से रहित जीवन जीना चाहिये। क्योंकि गृहस्थ आश्रम के धर्म का पालन करने पर स्वर्ग लोक अवश्य मिलता है। स्वर्ग लोक में पुण्य फल भोगकर पुनः पृथ्वी पर मानव रूप में अगले जन्म में आने पर यहां भी उसके सभी मनोरथ सहज सिद्ध होते हैं।
गृहस्थ आश्रम के दायित्व सम्पन्न कर व्यक्ति को, विशेषकर प्रत्येक ब्राह्मण को, अगर पत्नी साथ जाये, तो पत्नी के साथ और अगर पत्नी घर में ही बालबच्चों के साथ सुख का अनुभव करे तो अकेले ही वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिये। वहां आरण्यक शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिये तथा संयमित जीवन जीते हुये स्वाध्याय करते रहना चाहिये।
तत्पश्चात् सन्यास आश्रम में प्रवेश करना चाहिये। वहां रहते हुये मुनिवृत्ति से रहे। अपना कोई घर नहीं बनाये। किसी भी भोग वस्तु की कामना ना करे। जो कुछ भी उपलब्ध हो जाये उसी से जीवन निर्वाह करे और हृदय में किसी प्रकार का विकार नहीं आने दे। सबके प्रति समभाव रखे तथा अविनाशी ब्रह्म के ज्ञान की साधना करे।
आश्रमों में गृहस्थ आश्रम ही सर्वश्रेष्ठ है। इसलिये गृहस्थाश्रमी पुरूष को इन्द्रियों का संयम करते हुये शास्त्रों एवं गुरूजनों की आज्ञा मानकर नित्य देवताआंे और पितरों की तृप्ति के लिये हव्य और कव्य समर्पित करना चाहिये तथा ब्राह्मणों को अन्नदान देना चाहिये। सभी आश्रमों को भोजन देकर उनका पालन पोषण करना और यज्ञ-याज्ञ आदि में लगे रहना गृहस्थ का कर्तव्य है। पितामह ने यहाँ नारायण गीत का उल्लेख किया, जिसका सार यह है कि गृहस्थ पुरूष को सदा सत्य, सरलता, अतिथि सत्कार, धर्म, अर्थ, अपनी पत्नी के प्रति अनुराग आदि कर्तव्यों का पालन करते हुये सुख का सेवन करना चाहिये। इससे उसे इहलोक व परलोक दोनोें में सुख प्राप्त होता है।

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