।। क्रोध कहता है।।
छाती जलाता क्रोध है, ना क्रोध करना चाहिये।
क्यों मन जलाना अन्य का, क्यों आप जलना चाहिये।।
है काम में सुख लेश पर, सुख लेश नाहीं क्रोध में।
सब दोष ही हैं क्रोध में, गुण एक नाहीं क्रोध में।। 1।।
ईश्वर बनाया व्यर्थ ही, है क्रोध आकर क्रोध में।
ऐसा कथन नाहीं उचित, गुण भी बहुत हैं क्रोध में।।
सामान्य नर की बुद्धि में, ना तत्व मेरा आ सके।
ईश्वर कृपा एकाद ही है, मर्म मेरा पा सके।। 2।।
यदि मैं ना होता राम, कैसे ताड़िका जा मारते।
शर एक से मारीच कैसे, सिन्धु पार उतारते।।
मेरे बिना लंका पुरी, हनुमान कैसे उजारते।
सीता न मिलती राम यदि, लंकेश नाहीं मारते।। 3।।
यदि मैं न होता कृष्ण, कैसे नाग का करते दमन।
कंसादि कैसे मारते, होता यहां कैसे अमन।।
यदि मैं न होता विष्णु, कैसे फिर सुदर्शन धारते।
गजराज का जीवन बचाकर, ग्राह कैसे मारते।। 4।।
यदि मैं न होता यम, किसी को दंड कर सकते न थे।
बिनु दंड उनके पाप लाखों, जन्म हर सकते न थे।।
हरते नहीं यदि पाप तो, नर जन्म पा सकते न थे।
पाते नहीं नर जन्म, तो कैवल्य पा सकते न थे।। 5।।
यदि मैं न होता शंभु शंकर, रुद्र बन सकते न थे।
बनते नहीं यदि रुद्र तो, संहार कर सकते न थे।।
संहार यदि करते नहीं, भवचक्र चल सकता न था।
चलता नहीं भवचक्र तो, भवबन्ध टल सकता न था।। 6।।
यदि मैं न होता भोग से, वैराग्य हो सकता न था।
होता नहीं वैराग्य तो, निज बोध हो सकता न था।।
बिनु बोध के भव सिंधु से, कोई निकल सकता न था।
भव सिंधु से निकले बिना, सुख सिंधु मिल सकता न था।। 7।।
मेरे बिना चिकना घड़ा, नर जोश में न आवता।
ना जोश में आये बिना, घर छोड़ कोई जावता।।
जाता नहीं घर छोड़ तो, एकान्त में ना आवता।
आये बिना एकान्त में, शिवतत्व नाहीं ध्यावता।। 8।।
मैं आदि हूं, मैं व्याधि हूं, यमदूत हूं, मैं काल हूं।
मैं सिंह हूं, मैं भेड़िया, मैं अग्नि हूं, मैं व्याल हूं।।
इत्यादि लाखों रूप धर, मैं पापियों को मारता।
निष्काम भगवत् भक्त को, वैराग्य सिखला तारता।। 9।।
क्रोधी स्वयं हैं रुद्र भोला! क्रोध कैसे तज सके।
मारा त्रिपुर नाहीं जाय, तब तक, रूप कैसे भज सके।।
जब तक त्रिपुर नाहीं मरे, तब क्रोध भी ना जायेगा।
जिस दिन मरेगा त्रिपुर, उस दिन, क्रोध नाहीं आयेगा।। 10।।
-आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र