युगपुरुष धर्मसम्राट् ब्रह्मलीन स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज: जयन्ती विशेष

उत्तराखंड

‘करपात्र स्वामी’, अर्थात् ‘कर’ ही है पात्र जिनका – ऐसे स्वामी हरिहरानंद सरस्वती संसार में ‘करपात्री जी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए । वे एक युगपुरुष थे । इतिहास साक्षी है कि भारत की इस पवित्र भूमि ने समय-समय पर ऐसे संत-महात्माओं और आचार्यों को अवतरित किया, जिनके जीवनसे भारतीय संस्कृति तथा सनातन धर्म को प्रकाश तथा संजीवनी मिली । इसी कडी में, आदिशंकराचार्य की परंपरा में अनंत श्रीस्वामी करपात्री जी महाराज अवतरित हुए । उनमें अलौकिक प्रतिभा, तपस्या एवं साधनाका असीम तेज था । कलि के इस प्रथम चरण में जीवनपर्यंत वर्णाश्रम व्यवस्था और धर्म की रक्षा के लिए वे संघर्षरत तो रहे ही, जगत को वेद-शास्त्र और धर्म के सूक्ष्म तत्वों से अवगत भी कराया ।

पारिवारिक जीवन
एक बार महाराज श्री ने स्वयं बताया था कि बाल्यावस्था में जब वे किसी संत-महात्मा या साधुको देखते थे, तो उनके मनमें उनके प्रति स्वाभाविक आकर्षण उत्पन्न हो जाता था । उस समय उनकी यही इच्छा होती कि मैं भी उनके साथ हो जाऊं । कई बार तो वे साधुओंके साथ जाने भी लगते; परंतु परिवारके लोग उन्हें पकडकर लौटा ले आते । उनके पिताजीने जब अनुभव किया कि इनका मन घर-गृहस्थी में नहीं लग रहा है, तो उन्होंने किशोरावस्था में ही इनका विवाह कर दिया । उन्हें आशा थी कि विवाह के उपरांत सामान्य रूप से घर-गृहस्थीके कार्यों में ये आसक्त हो जाएंगे । परंतु विधि की विडंबना कुछ और ही थी । विवाहके पश्चात् तथा पत्नी के आ जानेपर भी वे घर-गृहस्थीके प्रति पूर्ववत् ही उदासीन एवं अनासक्त रहते । साधु-संतोमें ही उनका मन रमा रहता था । संसारसे विरक्त रहते थे । पिता ने जान लिया कि अब यह अधिक दिनोंतक घर में टिकनेवाला नहीं है । पिताकी इच्छा थी कि एक संतान हो जाती तो वंश चलने लगता । पिताकी इच्छा पूरी हुई । एक कन्याका जन्म हुआ । तदुपरांत कुछ ही दिनों पश्चात्, घरसे निकल पडे । पारिवारिक जनों ने इन्हें पुनः घर लौटानेका बहुत प्रयत्न किया; परंतु वे संसारकी नश्वरता से परिचित हो चुके थे । उत्कट वैराग्य जागृत हो चुका था । अतः परमार्थ-पथसे लौटकर पुनः घर आना उन्हें स्वीकार नहीं हुआ ।

ज्ञानसंपादन
अलवर में नर्मदा के तटपर स्वामी श्री विश्वेश्वरानंदजी महाराजश्रीके विद्यागुरु थे । वहां महाराज ने लगभग २ वर्ष के अल्पकालमें ही व्याकरण, न्याय, सांख्य और वेदान्तकी शिक्षा प्राप्त की । साथ ही, प्रस्थानत्रयी आदि विषयोंमें वे निपुण हो गए । महाराजश्रीकी प्रतिभा इतनी प्रखर थी कि जिस विषयको वे एक बार देख लेते, वह उन्हें आत्मसात हो जाता था । ऋषिकेशमें कोयलघाटी नामक स्थान है, जहां एक पुरातन वट-वृक्ष आज भी स्थित है । उस वृक्षके कोटरमें एक व्यक्तिके रहने योग्य स्थान है, जिसमें महाराजश्री विश्राम किया करते थे । उन दिनों लंगोटी के अतिरिक्त महाराजश्रीके पास कोई वस्त्र नहीं होता था । तीन दिन अथवा सात दिन उपरांत दूधकी भिक्षा, कर (हाथ) से ही ग्रहण करते थे । इसीलिए वे आगे चलकर ‘करपात्रीस्वामी’, इस नामसे प्रसिद्ध हुए । उस समय स्वामी जी यात्राके लिए किसी प्रकारके यान अथवा वाहनका उपयोग नहीं करते थे; पैदल ही यात्रा करते थे ।

महामना मालवीय जी से शास्त्रार्थ
जिन दिनों महाराजश्री ऋषिकेशमें रहते थे, उन दिनों वे प्रकाशमें तब आए, जब महामना मदनमोहन मालवीयजीसे उनका शास्त्रार्थ हुआ । यद्यपि श्री मालवीयजी सनातन धर्मी नेता थे; परंतु समय और परिस्थितिके अनुसार स्त्री और शूद्रको भी प्रणवकी दीक्षा देने का समर्थन करते थे और इसे शास्त्र-सम्मत बताते थे । उन्होंने इस विषयपर शास्त्रार्थ की भी घोषणा कर दी । कुछ लोग, जो महाराजश्री से परिचित थे, उनसे मिले और प्रार्थना करने लगे कि आप जैसे विद्वान के रहते, इस प्रकारके आह्वानका सामना होना ही चाहिए । इस विषयमें शास्त्र-सम्मत निर्णय होना ही चाहिए । शास्त्र विपरीत कोई भी बात महाराज श्री को सहन नहीं होती थी । उस समय महाराजने कोई उत्तर नहीं दिया । शास्त्रार्थके लिए एक विशेष मंचका निर्माण किया गया, जहां ध्वनिवर्धक एवं ध्वनिक्षेपक आदि उपकरण लगे थे । उस क्षेत्रके प्रतिष्ठित लोग शास्त्रार्थमें आमंत्रित थे । मालवीयजी अपनी बातके पक्षमें तर्क-युक्ति और शास्त्रीय प्रमाण अपने भाषणमें मंचपर प्रस्तुत कर रहे थे । मंचसे थोडी ही दूर एक वृक्षके नीचे लंगोटी बांधे एक युवासाधु खडा होकर मालवीयजीके तर्क-युक्ति और प्रमाणोंका उत्तर देने लगा ।
धीरे-धीरे कुछ श्रोता वहां जुटने लगे । थोडे ही समयमें यह बात विद्युलता की भांति आस-पास के क्षेत्रों में प्रसारित हो गयी कि एक प्रतिभावान निष्कांचन साधु एक वृक्षके नीचे खडा होकर मालवीयजी की बातों का उत्तर दे रहा है । अब तो संत-महात्मा और विशिष्ट जन भी वहां पहुंचने लगे । मंचपर आसीन लोग भी उस महात्माका उत्तर सुननेको आतुर हो गए । यह बात मालवीयजी के कानोंतक जा पहुंची और लोगों ने उनसे आग्रह किया कि उस साधुको इस मंचपर लाया जाए । कुछ लोगोंने महाराजश्रीको पहचाना । मालवीयजी स्वयं वृक्षके नीचे पधारे और महाराजश्रीसे मंच पर आने का आग्रह किया । महाराजने तत्काल शास्त्रार्थका आह्वान स्वीकार कर लिया, एवं मंचपर मालवीयजी से शास्त्रार्थ होना निश्चित हो गया । सेठजी श्री. जयदयालजी गोयंद का तथा सेठ श्री. गौरीशंकरजी गोयन्दका मध्यस्थ बनाए गए । तीन दिनों तक शास्त्रार्थ चला । मध्यस्थों ने यह निर्णय दिया कि महाराजश्रीका पक्ष ही शास्त्र-सम्मत है । मालवीयजी अपनी बात देश-काल-परिस्थिति के अनुसार कहते हैं । उस समय सर्वप्रथम ही सर्वसाधारण समाजको महाराज श्री का परिचय हुआ और वे जनता-जनार्दनके प्रकाश में आए ।

साधना
उस घटनाके पश्चात्, कुछ दिन महाराजने वृंदावनमें निवास किया । वहां उन्होंने निराहार रहकर स्वान्तः सुखाय श्रीमद्भागवत-सप्ताहका पाठ किया । उन दिनों वे सप्ताहमें एक बार कर (हाथ)- द्वारा दूधकी भिक्षा मांगते । दूसरे सप्ताह पुनः पाठ आरंभ कर देते । इस प्रकार अनेक दिनों तक यह कार्यक्रम चलता रहा ।

एक बार किसी प्रसंगवश महाराजने मुझे बताया कि वे भीषण जाडे के समय पौष मास की अर्धरात्रि में निर्वस्त्र ही केवल एक लंगोटी धारणकर साधना करने बैठ जाते थे और संपूर्ण रात्रि साधनामें लगे रहते थे । इसके अतिरिक्त विविध प्रकारकी यौगिक क्रियाएं भी महाराजने संपन्न की । खेचरी आदि यौगिक क्रियाएं, जिनमें जिह्वा काटनेकी क्रिया एवं इन्द्रिय द्वारा पारा खींचने की भी क्रिया होती है, ये सब महाराज ने की । मैंने एक बार महाराज जी से पूछा – ”महाराज, ये सब आपने क्यों किया ?” महाराज ने उत्तर दिया – ”कुतूहलवश हमने यह सब करके देखा कि इन सबमें कौन-सा तत्व है ।” इस प्रकार महाराजश्रीने प्रायः संपूर्ण यौगिक क्रियाएं तथा हठयोग की साधना पूरी की ।

गुरुप्राप्ति
महाराज ने प्रारंभमें विद्वत संन्यास लिया था । पश्चात् विद्वानोंकी सभामें इस विषयमें विचार-विमर्श किया गया और निर्णय हुआ कि शास्त्रानुसार संन्यास ग्रहण करनेके लिए दण्ड आदि धारणकर लिङ्ग-संन्यास लेना चाहिए । महाराजने तत्कालीन ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगदगुरू शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती जी से दण्ड ग्रहण किया । ज्योतिष्पीठाधीश्वर स्वामी ब्रह्मानन्दजी भी करपात्रस्वामी जैसे योग्य शिष्य को पाकर कृत कृत्य हो गए । उन्होंने निर्णय लिया कि मेरे बाद उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठ-शंकराचार्य के पदपर स्वामी करपात्रजीको ही अभिषिक्त किया जाएगा ।

धर्मप्रसार
महान संत विश्ववंद्य, धर्मसम्राट, श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य, परमवीतराग, यतिचक्रचूडामणि अनंत श्रीविभूषित, दण्डी संन्यासी, श्रीहरिहरानन्द सरस्वती स्वामी श्री करपात्री जी महाराज हैं । प्रश्न चाहे वर्णाश्रम मर्यादा संरक्षणका हो अथवा शाश्वत सनातन धर्मके सत्य सिद्धान्तोंके संस्थापनका हो, वैदिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार में उन्होंने अपना सर्वस्व लगा दिया । पराधीन भारतमें जन-जनमें राजनीतिक चेतना जागृत करनेका कार्य तो अनेक कर्मनिष्ठ नेताओं ने किया, किंतु विपरीत गति, कलुषित वातावरण एवं अल्पसहयोगमें भी धर्म, संस्कृति, वेद, शास्त्र, मंदिर, गौ, ब्राह्मण, यज्ञ एवं आस्तिकवादके रक्षणार्थ जन- साधारणमें व्यापक प्रचार करनेके गुरुतर कार्यका संपादन यदि किसीने किया है, तो वे हैं एक मात्र शिवावतार श्री स्वामी करपात्रीजी महाराज । अतः जिसे अनादि अपौरुषेय वेदोंका दर्शन करना हो, जिसे वेदादि सत्शास्त्रों एवं पुराण, स्मृति, आदिका मूर्त रूप देखना हो, उसे एक ही व्यक्तिमें यह सर्व दर्शन हो सकता है और वे हैं श्री स्वामी करपात्रीजी महाराज । महाराजश्री की अध्यापनकला भी अनोखी थी । जब वे शास्त्रीय विषय का प्रतिपादन करते थे, तो शिष्यगणों के चित्तमें वह सर्वदाके लिए अंकित हो जाता था, जो भुलाए भी नहीं भूलता था ।
उनकी चतुः सूत्री –
१. धर्म की जय हो ।
२. अधर्म का नाश हो ।
३. प्राणियों में सद्भावना हो ।
४. विश्व का कल्याण हो ।
सुमेरुपीठकी स्थापना
धर्मप्रचारार्थ देश के चारों कोनों में चार पीठोंकी स्थापना आदिशंकराचार्यने की थी । परंतु, शास्त्रोंमें इसके अतिरिक्त सुमेरुपीठका वर्णन भी मिलनेके कारण महाराजश्रीने काशीमें पांचवें पीठ ‘सुमेरुपीठ’की स्थापना की, जिसके शंकराचार्य-पदपर सर्वप्रथम अनंतश्री स्वामी महेश्वरानंद सरस्वतीजी महाराज का प्रयागराजमें अभिषेक किया गया ।

दिनचर्या
स्वामी श्रीकरपात्रीजीकी दिनचर्या भी विलक्षण थी, जिसे उनके भक्तगण भी नहीं जान पाए ।
कई-कई दिवस तक निर्जल व्रत, ढाई घण्टे का शीर्षासन, रात्रि डेढ़ बजे ही उठकर प्रतिदिन दस मील पैदल भ्रमण, घंटों एक आसन से बैठकर अध्ययन एवं लेखन, पूजन के त्रिकाल नियमों का अक्षरशः पालन, २४ घण्टों में एक बार सामान्य भिक्षा पत्तल या हाथ पर रखकर ही ग्रहण करना, साठ वर्षों से नमक-मिष्टान्न का परित्याग, अनवरत धर्मयात्रायें, भाषण, आंदोलन, विभिन्न विषयों पर शास्त्रीय पक्ष एवं विचार उपस्थापन ।
यह बात प्रसिद्ध थी कि महाराज को भिक्षा ग्रहण करने में समय नहीं लगता था, ३ अथवा ५ पलमें ही उनकी भिक्षा समाप्त हो जाती थी । जो समय लगता था, वह केवल भगवानका भोग लगाने में ही लगता था ।

अहर्निश धर्म-शास्त्र, वेद गो संरक्षण में सक्रिय इस ऋषि को पाकर सचमुच आज भारत माता धन्य हुई है ।
समाज सेवा में रत ‘सर्वजन सुखाय’ , ‘सर्वजन हिताय’, चतुः सूत्री का भारतीय वैदिक सनातन भावना को अजस्त्र अबाध अविरल गति से इस भीषण कलिकाल में अकेले ही आगे बढ़ाने के कार्य चौबीसों घण्टे व्यस्त इस सन्यासी को शत-शत प्रणाम, जो व्यक्ति आकृति में देव तुल्य पवित्र ।
धन्य हैं वो लोग जिन्होने इनके दर्शन किये हैं, अभागे हैं वो लोग जो आज भी उनसे अपरिचित हैं ।

श्रीहरि — उनका यह कार्यक्रम नित्य नियमित रूपसे चलता रहता । यहाँ तक कि यात्रा में भी वे इस कार्यक्रम का निर्वाह पूरी तत्परतासे करते । महाराजकी यात्रा लोहपथगामिनी से नहीं होती थी । वे मोटरकार से ही यात्रा करते थे । रात्रिमें गाडी तब तक चलती, जबतक उनका शयन चलता रहता । रात्रिमें १ बजे गाडी रोक दी जाती और वे अपने दैनिक कृत्यों में व्यस्त हो जाते । महाराज की पूजा-अर्चा प्रतिदिन ३ बार होती थी । प्रातः कालीन पूजा प्रायः एकाकी करते थे । मध्याह्नकालीन पूजा दिनमें लगभग १२ बजे तथा सायंकालीन पूजा रात्रिमें ७.३० से ९.३० बजेतक चलती । दोपहर और रात्रिका पूजन सर्वसाधारण भक्तजनोंके मध्य होता । प्रातः ८ से १२ तक तथा सायं ६ से ७.३० के मध्य सर्वसाधारणसे मिलने-जुलने तथा पठन-पाठन, स्वाध्याय और लेखन आदि कार्य होता ।

परिपक्व वैराग्य
ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर सभी ऋतुओंमें वे प्रायः एक ही चादर ओढकर सोते थे ।
निर्जला एकादशी-व्रत
महाराजजी नियमके अटल थे । प्रत्येक एकादशी को उनका निर्जल व्रत रहता था । मार्ग में या कहीं भी भीषण-से-भीषण ग्रीष्मकाल अथवा आपत्कालमें भी वे एकादशीको जल ग्रहण नहीं करते थे ।
सनातनधर्म-विजय-महोत्सव
स्वामी दयानन्द सरस्वतीके निर्वाणको १०० वर्ष पूरे होनेपर आर्यसमाजने उनका शताब्दी समारोह मनाया और यह घोषणा की कि स्वामी दयानन्दके अनुयायी आर्यसमाजी विद्वान् शास्त्रार्थ में, दिग्दिगन्त में विजय-यात्रा करते हुए पधार रहे हैं । यहां ये अवतारवाद, मूर्तिपूजा और श्राद्धादि रूढियोंका खण्डन करेंगे । जो चाहे उनसे शास्त्रशास्त्रार्थ कर सकता है । महाराजश्री इस आह्वानको कब सहन कर सकते थे । उन्होंने तुरंत इस आह्वान को स्वीकार करते हुए कहा, ‘धार्मिक क्षेत्रमें भी पंचशील का सिद्धांत माना जाना चाहिए । अपनी-अपनी आस्था-मान्यता और विश्वासके अनुसार सबको अपने धार्मिक कृत्य सम्पन्न करने का अधिकार है ।
परंतु किसीके धर्ममें हस्तक्षेप और आक्रमण कभी सहन नहीं किया जा सकता । अतः उसका प्रतिकार किया जाएगा ।’ इस सिद्धांतकी रक्षाके लिए उन्होंने शास्त्रस्त्रार्थ भी करना स्वीकार किया ।
महाराजजीका यह स्वभाव था कि वे शास्त्रशास्त्रीय के विरुद्ध कुछ भी सुनना नहीं चाहते थे । कोई कितना भी निकटतम व्यक्ति क्यों न हो, यदि वह शास्त्रशास्त्रीय सिद्धातों के विरुद्ध कुछ कहता है अथवा लिखता है, तो महाराज तत्काल उसका खण्डन करते और उस बातका युक्ति और तर्कसहित शास्त्रशास्त्रके पक्ष में उत्तर देते थे ।
आक्षेपोंके (शंकाओं, आपत्तियों के) समाधानार्थ ग्रन्थ रचना
कुछ व्यासगणों ने एक बार महाराजश्री को कामिल बुल्के की लिखी ‘रामकथा’ लाकर दी तथा कामिल बुल्के द्वारा विभिन्न रामायणों का संदर्भ देकर भगवान् राम और भगवती सीता पर जो आक्षेप किए गए थे, उस ओर ध्यान आकृष्ट किया । तब महाराजजीने तत्काल उन सभी आक्षेपोंका उत्तर लिखा तथा जिन रामायण ग्रंथोंका संदर्भ बुल्के ने दिया था, उन सभी ग्रंथोंको देखकर रामायणसे संबाधित जो भी शंकाएं थीं, उन सबका निराकरण एवं समाधान ‘रामायण-मिमांसा’ नामक ग्रंथ लिखकर किया । इसी प्रकार आचार्य रजनीशकी ‘संभोगसे समाधिकी ओर’ तथा ‘समाजवाद और पूंजीवाद’ पुस्तक किसी ने महाराजको लाकर दी । महाराजजीने उन्हें पढा और तत्काल उसका उत्तर लिखे बिना नहीं रह सके । शास्त्रशास्त्रीय सिद्धांतों के विपरीत देशभक्ति, राष्ट्रवाद, और राजनीति से सम्बन्धित विचारधाराओं का खण्डन किए बिना महाराज रह नहीं सकते थे । इस सम्बधमें स्वातंत्रवीर सावरकर तथा गुरु गोलवलकरजी के विचारोंका खंडन महाराजश्री ने ‘विचारपीयूष’ नामक ग्रंथ लिखकर किया ।
मेरा नहीं, #राम का चित्र चाहिए
महाराज द्वारा रचित ‘रामायण-मिमांसा’ पुस्तक के प्रकाशनका दायित्व एक शिष्यपर था । पुस्तक लगभग छप चुकी थी । परंतु आवरण आदि बांधना शेष था । महाराजने एक दिन उससे पूछा कि इस पुस्तक के प्रकाशन में विलंब क्यों हो रहा है ? उसने उत्तर दिया, ‘महाराज, कुछ लोगोंकी भावना है कि इस ग्रंथमें आपका भी एक चित्र होना चाहिए । चित्र बनने में कुछ विलम्ब होने के कारण पुस्तक प्रकाशनमें विलंब हो रहा है ।’ यह सुनकर महाराज कुछ विचलितसे हुए और तत्काल कहा, ”सावधान! इस विषयमें मैं जैसा कहूं, वैसा ही करना, दूसरोंका कहा नहीं करना । यदि चित्र देना ही है, तो भगवान् राम का पञ्चायतन चित्र देना, मेरा नहीं ।”
विदेश-यात्राके संबन्धमें महाराज यह कहते कि आज तो पण्डित और सनातनधर्मी प्रायः सभी विदेश यात्रा करते हैं । मैं किसे मना करूं । अपनी मानसिक-दुर्बलता के कारण शास्त्र के विपरीत कोई व्यक्ति आचरण कर सकता है । परंतु वह यदि अपने इस कृत्यको शास्त्रसम्मत सिद्ध करने की चेष्टा करता है, तो यह घोर अन्याय है । सत्पुरुषों को प्रामाणिकता से अपनी मानसिक-दुर्बलता को स्वीकारते हुए शास्त्र का यथार्थ प्रतिपादन इस प्रकार से करना चाहिए, जिससे आनेवाली पीढियों को शास्त्र के वास्तविक अर्थ को समझने में भ्रम न रह जाए । महाराजश्री ने तत्काल विदेश-यात्रा पर कई लेख लिखे, जिसमें शास्त्रीय दृष्टि से विदेश-यात्रा के निषेध का प्रतिपादन किया गया ।
मंदिर-मर्यादा का संरक्षण तथा श्रीकाशी-विश्वनाथकी स्थापना
मंदिर-प्रवेशके संबन्धमें भी महाराजका मत स्पष्ट था । वे हरिजनोंके हृदय से हितचिन्तक थे । एक बार कानपुरमें ‘अखिल भारतवर्षीय धर्मसंघ’का महाधिवेशन चल रहा था । उत्तर प्रदेशके बाबू सम्पूर्णानंदजी वहां पधारे । महाराजश्री भी वहां उपस्थित थे । सम्पूर्णानंदजीने अपने भाषण में हरिजन-प्रवेश की चर्चा की । उनके भाषणके उपरांत महाराजने बडे युक्तिपूर्वक ढंग से उनके सभी प्रश्नों का उत्तर दिया और कहा कि हमारे शास्त्र सम्पूर्ण जीवों के कल्याणका ऐसा उपाय बताते हैं तथा अधिकारानुसार कर्तव्य का निर्देश करते हैं, जिससे वास्तविक कल्याण हो ।
साधु को स्वावलम्बी होना चाहिए
साधु के लिए कलंक किसी संदर्भमें महाराज जी ने कहा कि कभी-कभी साधु के पुस्तकों में, तकियों में तथा बिछावन आदिमें रुपए-पैसे मिलते हैं । यह साधुके लिए कलंक है ।
भगवद्बुद्धि भगवान् की पूजा का अमोघ साधन
बातचीत के क्रममें एक बार महाराज ने बताया कि हमारे धर्मशास्त्रों में मनुष्य के कल्याण के लिए भगवत्सेवा, आराधना जैसी पूजा की बडी सरल विधियों का प्रतिपादन किया गया है । घ रमें पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पौत्र, और बन्धु-बान्धवों में मनुष्य का स्वाभाविक स्नेह-प्रेम होता ही है तथा मोह-ममता के वशीभूत होकर उनकी सेवा-अर्चा भी करनी पडती है । यदि हम उन पारिवारिक सदस्यों में मोह-ममता के स्थानपर भगवद्बुद्धि कर लें, वृद्ध माता-पिता को माता अन्नपूर्णा एवं भगवान् विश्वनाथ का स्वरूप मान लें, पति को परमेश्वर, पुत्र को मदनमोहन, श्यामसुंदर, लाडले पौत्र को लड्डुगोपाल, पुत्रवधू को राधारानी, कुमारी कन्या के प्रति भगवती जगदम्बा, इस प्रकारकी भावना बना लें, तो पारिवारिक जनों के निमित्त किए गए सभी कार्य अपनेआप ही भगवान की पूजा में परिवर्तित हो सकते हैं ।
महाराजश्री ने कहा कि ‘जब पत्थर की मूर्तियों में भगवान्की पूजा हो सकती है, तो सचल-सजीव स्नेही जनों में भगवद्भाव हो जाए, तो भगवान की पूजा क्यों नहीं हो सकती ।’
#वाचस्पति: ०९ जनवरी सन् १९७९ को सांयकाल चार बजे श्री संपूर्णा नन्द संस्कृत विश्वविद्यालय की ओर से उच्चतम उपाधि ‘वाचस्पति’ से सम्मानित किये गये ।
भारतीय संस्कृति और सनातनधर्म को समझने के लिए कोई एक ऐसा ग्रन्थ होना चाहिए, जिसे पढकर सनातनधर्म की सम्पूर्ण बातों की जानकारी हो जाए । यह सुनकर महाराजश्री ने तत्काल उत्तर दिया कि यदि भारतीय संस्कृति और सनातनधर्म की पूर्ण जानकारी के लिए कोई एक ही ग्रन्थ पढना चाहे, तो वह गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी की रामचरितमानस पढे ।
माघ शुक्ला द्वादशी तदनुसार ०५ फ़रवरी १९८२ को जब काशी से पुरी पीठ के वर्तमान शंकराचार्य काशी से उरई प्रस्थान करने लगे तो ‘अभिनव शंकर’ बोले ‘हाँ, हाँ अवश्य जाओ पर देखो सोमवार (८ फ़रवरी) को काशी अवश्य लौट आना – माघ शुक्ला चतुर्दशी संवत २०३८ (०७ फ़रवरी १९८२) को जब ब्रह्मचारी पूजा के पुष्प लेकर समुप स्थित हुआ तो स्वयं केदार घाट वाराणसी में गंगास्नान कर सोपानरोहण पूर्वक निजतपोभूमि वेदानुसंधान संस्थान कक्ष में आकर ब्रह्मचारी को निर्देश दिया की पूजा लगा आ-अनंतर नित्य आराधना समाप्त कर कुछ देर विश्राम किया ।
फिर ‘शिव’, ‘शिव’, ‘शिव’, ले नाम का उच्चारण आरंभ कर दिया ।
श्री सूक्त का पाठ कर नेत्रोन्मिलन कर त्राटक लगा दिया …. श्वास-प्रश्वास की गति का तार तम्य उध्-र्वगामी करते हुए पंचप्राणों को महाप्राण में प्रविलिनीकरण को क्रियात्मक रूप देना प्रारंभ कर दिया तो उपस्थित ब्रह्मचारी ने पुकारा तो एक दूसरे ब्रह्मचारी ने आकर उन त्रिपुंड धारी देव तुल्य पवित्रात्मा के मुखारबिन्दु में तुलसी गंगाजल डाल दिया – उसका पान कर लिया (उक्त क्रिया से शिर-भारी-पीड़ा होने की बात कही) परन्तु मुख से निरंतर ‘शिव’, ‘शिव’ निकल रहा था ।
ब्रह्मालिन हो गयी ।
पूर्णिमा को मानो ग्रहण लग गया था ।
यह प्रतीत होता था कि महाराजश्रीके जीवनका सम्पूर्ण कार्य योजनाबद्ध था । गृहस्थीके उपरांत तपोमय साधनामय जीवन, धर्मसंघकी स्थापना, यज्ञ-युगका प्रारम्भ, सर्ववेद-शाखा-सम्मेलन, धार्मिक महाधिवेशन, रामराज्य-परिषदके द्वारा राजनीतिमें प्रवेश, हिंदु कोड बिलका प्रबल विरोध तथा गो-हत्या-बंदी आंदोलनका संचालन आदि संपूर्ण कार्य महाराजश्रीके द्वारा सार्वजनिक जीवनमें सम्पन्न हुए । देशमें धार्मिक जगत्की महान् विभूतियों को एक मंच पर लाने का श्रेय महाराजश्री को ही है ।
उन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघ-संचालक श्री. माधवराव सदाशिव गोलवलकरजी भी स्वामीजी से मिले । उनकी यह भावना थी कि हिंदु संगठन को सुदृढ करने की दृष्टि से हिंदु जगत्के सभी नेता एक मंचपर आएं तथा स्वामीजी महाराजका आशीर्वाद जनसंघको प्राप्त होता रहे । परंतु, वर्णाश्रम-व्यवस्था और मर्यादाके विपरीत राजनीति महाराजश्रीको स्वीकार नहीं थी । वे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के रामराज्य के अनुसार शास्त्रीय विधि से भारतमें राज्य शासन-संचालन के पक्षधर थे और इसी में वे जगत्का कल्याण मानते थे । अतः इस संदर्भ में कोई समझौता होना सम्भव नहीं था ।
जीवनके उत्तरार्ध में महाराजश्री ने धर्म के बहिर्मुखी कार्यों से स्वयं को समेटना प्रारम्भ कर दिया । अब महाराजश्री की रुचि लेखन-कार्य की ओर अधिक हो गयी । महाराजश्रीने वेदपर भाष्य लिखना प्रारम्भ किया । सर्वप्रथम ‘वेद-भाष्य-भूमिका’ नामक एक बृहद ग्रन्थकी रचना महाराजके द्वारा हुई । जिसमें लगभग एक सहस्रपृठ हैं । इस ग्रन्थ में महाराजने वेदों से सम्बन्धित अब तक के सभी आरोपों का एवं आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद के संपूर्ण आक्षेपों का निराकरण करते हुए प्राचीन ऋषि-महर्षि-प्रणीत परम्परागत सिद्धान्तों का एक बडे समारोह में प्रतिपादन किया । इस ग्रंथ का विमोचन काशी संस्कृत विद्यापीठ में वहां के कुलपति काशिराज डॉ. विभूतिनारायण सिंहके करकमलों से सम्पन्न हुआ । श्री. राधाकृष्ण धानुका प्रकाशन-संस्थानकी ओरसे इस ग्रंथका प्रकाशन हुआ । तदनन्तर महाराजश्री ने सम्पूर्ण शुक्ल यजुर्वेद पर भाष्य-टीका का प्रणयन किया । ऋग्वेद पर भाष्य लिखा ।
अन्नं न निन्द्यात् । तद्व्रतम् । प्राणो वा अन्नम् । शरीरमन्नादम् । प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् । शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः । तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम् । स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति । अन्नवानन्नादो भवति । महान् भवति । प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन । महान् कीर्त्या ॥
॥ धर्म की जय हो ॥
॥ अधर्म का नाश हो ॥
॥ प्राणियों में सद्भावना हो ॥
॥ विश्व का कल्याण हो ॥
सत्यमेव परं ब्रह्म सत्यमेव परं तपः ।।
सत्यमेव परो यज्ञस्सत्यमेव परं श्रुतम् ।।
सत्यं सुप्तेषु जागर्ति सत्यं च परमं पदम् ।।
सत्येनैव धृता पृथ्वी सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितम् ।।
ततो यज्ञश्च पुण्यं च देवर्षिपितृपूजने ।।
आपो विद्या च ते सर्वे सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ।।
सत्यं यज्ञस्तपो दानं मंत्रा देवी सरस्वती।।
ब्रह्मचर्य्यं तथा सत्यमोंकारस्सत्यमेव च ।।
सत्येन वायुरभ्येति सत्येन तपते रविः ।।
सत्येनाग्निर्निर्दहति स्वर्गस्सत्येन तिष्ठति ।।
पालनं सर्ववेदानां सर्वतीर्थावगाहनम् ।।
सत्येन वहते लोके सर्वमाप्नोत्यसंशयम्।।
अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम् ।।
लक्षाणि क्रतवश्चैव सत्यमेव विशिष्यते ।।
सत्येन देवाः पितरो मानवोरगराक्षसाः ।।
प्रीयंते सत्यतस्सर्वे लोकाश्च सचराचराः ।।
सत्यमाहुः परं धर्मं सत्यमाहुः परं पदम् ।।
सत्यमाहुः परं ब्रह्म तस्मात्सत्यं सदा वदेत् ।।
मुनयस्सत्यनिरतास्तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ।।
सत्यधर्मरतास्सिद्धास्ततस्स्वर्गं च ते गताः ।।
अप्सरोगणसंविष्टैर्विमानैःपरिमातृभिः ।।
वक्तव्यं च सदा सत्यं न सत्याद्विद्यते परम् ।।
अगाधे विपुले सिद्धे सत्यतीर्थे शुचिह्रदे ।।
स्नातव्यं मनसा युक्तं स्थानं तत्परमं स्मृतम् ।।
आत्मार्थे वा परार्थे वा पुत्रार्थे वापि मानवाः ।।
अनृतं ये न भाषंते ते नरास्स्वर्गगामिनः ।।
वेदा यज्ञास्तथा मंत्रास्संति विप्रेषु नित्यशः ।।
नोभांत्यपि ह्यसत्येषु तस्मात्सत्यं समाचरेत्

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