चाणक्य के अर्थशास्त्र में राज्य की व्यवस्था एवं स्वरूप

राजनीति राष्ट्रीय

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

महामति चाणक्य ने अपने महान ग्रंथ ‘अर्थशास्त्रम्’ राज्य के कर्तव्य और राज्य की शक्तियों तथा स्वरूप पर प्रकाश डाला है। परन्तु सबसे पहले यूरोपीय राजनीतिशास्त्रियों के सन्दर्भ में यह तथ्य सदा स्मरण रखना चाहिये कि भारत का कोई भी धर्मज्ञ विद्वान या राजशास्त्रप्रणेता कभी भी यह दावा नहीं करता कि वह इस विषय पर कोई नितांत नवीन बात कह रहा है। वह सदा आधारभूत शास्त्रों के प्रमाण देते हुये तथा पूर्व आचार्यों के मत श्रद्धापूर्वक उपस्थित करते हुये उसमें अपनी व्याख्या अथवा अपनी कोई नवीन उद्भावना इस विनय के साथ प्रस्तुत करता है कि वह परम्परा का ही पोषण कर रहा है और स्वधर्म का पालन कर रहा है। अतः भारत या विश्व के किसी भी विश्वविद्यालय में चाणक्य सहित किसी भी भारतीय राजशास्त्र प्रणेता को पढ़ना और पढ़ाना तब तक अप्रामाणिक है, जब तक सनातन धर्म के आधारभूत तत्वों की भारतीय शास्त्रों में बताई गई विवेचना प्रारंभ में ही नहीं स्पष्ट की जाये। व्यक्ति तथा समाज और राष्ट्र की विविध इकाइयों के विषय में शास्त्र की मान्यता और उन इकाइयों की अपनी सत्ता का परमसत्ता से संबंध स्पष्ट करना किसी भी ज्ञानात्मक प्रस्थान का अनिवार्यतः आरम्भ बिन्दु है।
चाणक्य की विश्वदृष्टि
अर्थशास्त्र के विनयाधिकारिक नामक प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय का अंतिम 17वाँ श्लोक चाणक्य की विश्वदृष्टि को सार रूप में प्रस्तुत करता है –
व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः। त्रय्या हि रक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति।।
चाणक्य कहते हैं कि शासक का सर्वोपरि कर्तव्य है आर्य मर्यादा की स्थापना करना और वर्णों तथा आश्रमों के द्वारा सदा स्वधर्म पालन निर्बाध गति से चलता रहे, यह स्थिति राज्य में बनाये रखना। ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद के ज्ञान से लोक की भलीभांति रक्षा होती रहती है, अतः उसकी व्यवस्था करें और आन्वीक्षकी, त्रयी, वार्ता तथा दण्डनीति इन चार विद्याओं के द्वारा सुरक्षित प्रजा एवं समस्त राज्य सदा आनंदमय रहता है और कभी भी अवसादग्रस्त नहीं होता।
इसी अधिकरण के द्वितीय अध्याय में आचार्य ने स्पष्ट किया है –
‘आन्वीक्षकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चेति विद्याः।’
अर्थात आन्वीक्षकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति – ये चार विद्यायें हैं। इसी अध्याय में आगे 8वें से 13वें मंत्र तक चाणक्य इनको अधिक स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि –
चतस्त्र एव विद्या इति कौटिल्यः।।8।।
ताभिर्धर्मार्थो यद्विद्यात्तद्विद्यानां विद्यात्वम्।।9।।
सांख्यं योगो लोकायतं चेत्यान्वीक्षकी।।10।।
धर्माधर्माै त्रय्यामर्थानर्थौ वार्तायां नयापनयौ दण्डनीत्याम्।।11।।
बलाबले चैतासां हेतुभिरन्वीक्षमाणान्वीक्षकी लोकस्योपकरोति व्यसनेऽभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति प्रज्ञावाक्यक्रियावैशारद्यं च करोति।।12।।
प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्। आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षकी मता।।13।।
इस प्रकार उन्हांेने स्पष्ट घोषणा की है कि मेरे मत से आन्वीक्षकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति ये चारों ही विद्यायें हैं। जबकि मनु के अनुसार आन्वीक्षकी त्रयी के अन्तर्गत ही है और बृहस्पति केवल वार्र्ता और दण्डनीति को ही विद्या मानते हैं क्योंकि वे लोकयात्राविद हैं (वार्ता दण्डनीतिश्चेति बार्हस्पत्याः। संवरणमात्रं हि त्रयी लोकयात्राविद इति)।
भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष पद पर एक प्रसिद्ध नास्तिक कम्युनिस्ट को बैठा कर कांग्रेस नीत भारत शासन ने विद्या के क्षेत्र में अज्ञान और अनंत का अंतहीन विस्तार किया है। इसमें डी.पी. चट्टोपाध्याय तथा राहुल सांकृत्यायन, रामविलास शर्मा, भगवान सिंह सहित सैंकड़ों कम्युनिस्ट लिक्खाड़ कार्यकर्ताओं ने अद्भुत भूमिका निभाई है। प्रत्येक शास्त्र वचन के अनुवाद में छल किया है। इस प्रकार महामति चाणक्य के उक्त कथन में बृहस्पति को लोकयात्राविद कहे जाने का नितांत असत्य और अनुचित अनुवाद यह कह कर किया है कि लोकयात्राविद होने का अर्थ है लोकायत मत को मानना और लोकायत का अर्थ है चार्वाक दर्शन। जबकि तथ्य यह है कि सर्वदर्शन संग्रह में चार्वाक के नाम से केवल कुछ श्लोक ही प्राप्त हैं और संपूर्ण भारतीय दार्शनिक इतिहास में चार्वाक नामक किसी दर्शन का कोई उल्लेख नहीं है। नास्तिकों अर्थात प्रज्ञाविहीन लोगों के लम्पट मतों की प्रसंगवश पूर्व पक्ष के रूप में कहीं-कहीं कोई कथन आ गया है। कम से कम भारतीय दर्शन में ‘दर्शन’ शब्द का इतना छिछोरा अर्थ कभी भी नहीं होता। चार्वाक कोई दार्शनिक नहीं है। वह एक दुष्ट और दुराचरण का पक्षधर व्यक्ति है जिसका वध ही करणीय होता है।
महाभारत में शांतिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व के 38वें एवं 39वें अध्याय में चार्वाक का विवरण दिया हुआ है जो उपलब्ध प्राचीनतम संदर्भ है। उसमें भगवान वेदव्यास बताते हैं कि चार्वाक एक राक्षस था जो दुर्योधन का मित्र था और जिसने अपनी एक मंडली बना ली थी। जब महाराज युधिष्ठिर विजय के उपरांत नगर में प्रविष्ट हुये और राजभवन में पहुँचकर वहाँ कुलदेवताओं का दर्शन और पूजन किया तथा बाहर निकले जहाँ हजारों ब्राह्मण मंगलद्रव्य लिये उनके लिये आशीर्वचन दे रहे थे। युधिष्ठिर ने उन सबका पूजन किया तथा सत्कार किया। जब पुण्याहवाचन समाप्त हो गया और जयघोष चारों ओर व्याप्त हो गया, उसके बाद शांति हो जाने पर राक्षस चार्वाक ब्राह्मण का वेश बनाकर मस्तक पर चन्दन एवं हाथ में त्रिदण्ड धारण किये आगे बढ़ा और युधिष्ठिर को दुष्ट और गुरूजनों तथा बन्धु-बान्धवों का हत्यारा एवं निरर्थक जीवन जीने वाला बताने लगा। उसने कहा कि मैं जो कह रहा हूँ, वही यहाँ एकत्र सभी ब्राह्मणों का मत है। तब सभी ब्राह्मण जोरों से बोल उठे कि नहीं, यह दुष्ट झूठ बोल रहा है। यह दुर्योधन का मित्र है और राक्षस है। यहाँ सन्यासी के रूप में आकर आपका अनिष्ट और दुर्योधन का हित चाहता है। ऐसा कहकर ब्राह्मणों ने उसे अपने शाप से भस्म कर दिया। इसके बाद महाराज युधिष्ठिर का जयघोष करते हुये सभी ब्राह्मण विदा हुये। तब भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि यह जो राक्षस है इसको पूर्व में वर प्राप्त हुआ था कि उसे ब्राह्मणों के सिवाय और किसी से कभी भय नहीं रहे। ब्राह्मणों का अपमान करने पर ही इसका अनिष्ट होगा। वही आज घटित हुआ है।
इस प्रकार अपने प्राचीनतम संदर्भ में प्रामाणिक इतिहास के अनुसार चार्वाक एक झूठ बोलने वाला और दुष्टों का मित्र तथा राक्षस है। इसके सिवाय चार्वाक का कहीं कोई प्राचीन उल्लेख नहीं है। भारत में ब्रिटिश प्रशासन के सचिव बनकर आये विन्सेंट आर्थर स्मिथ ने भारत पर मोहम्मडन विजय दिखलाने वाले अनेक पर्चे लिखे और जमकर प्रोपेगंडा किया। यद्यपि उसमें इतिहासकार होने की कोई भी पात्रता नहीं थी। कंपनी और ब्रिटिश राज के कर्मचारी झूठ और छल के लिये प्रसिद्ध थे। वे भारत मंे मोहम्मडन विजय के झूठे किस्से रचने में माहिर थे। उन्हांेने ही दिल्ली और आगरा के बीच की जागीर के जागीरदार मुगलों को भारत का सम्राट प्रचारित करने की राजनैतिक जालसाजियाँ की। इसी क्रम में विन्सेंट आर्थर स्मिथ ने 20वीं शताब्दी ईस्वी में (1915 ईस्वी के आसपास) लिखा कि अकबर के दरबार में एक राजसभा में एक बार एक जैन पंडित ने अथवा जैन साधु ने चार्वाक नाम के एक दार्शनिक का उल्लेख किया था। जो उल्लेख अब प्राप्त नहीं है। उसके बाद से ही अंग्रेजों और उनके भारतीय शिष्यों ने चार्वाक को एक भारतीय दार्शनिक प्रचारित करने का धंधा चलाया। जबकि उसके पहले तक एक पाखंडी और झूठे बदमाश के रूप में ही चार्वाक की चर्चा थी।
8वीं शताब्दी ईस्वी के विद्वान हरिभद्र सूरि की रचना ‘षडदर्शन समुच्चय’ में चार्वाक को भगवान को न मानने वाला तथा पुनर्जन्म एवं कर्मफल को नहीं मानने वाला तथा पुण्य और पाप को नहीं मानने वाला एक व्यक्ति बताया गया। वह व्यक्ति ही यूरोपीय लोगों और उनके भारतीय शिष्यों के लिये एक मानक दार्शनिक बन गया।
जहाँ तक लोकायत शब्द की बात है, उसका स्पष्ट अर्थ है लोक जीवन में सामान्य रूप से व्याप्त स्थूल धारणायें एवं मान्यतायें। यह दर्शन के प्रतिलोम के रूप में है। अर्थात दर्शन का विरोधी है लोकायत। लोकयात्रा शब्द इससे नितांत विपरीत है। वहाँ समस्त लोकजीवन को लोकयात्रा ही कहा जाता है। नितांत अज्ञान और मूर्खता अथवा दुष्टता से भरकर लोगों ने लोकयात्रा जैसे शास्त्रीय शब्द को लोकायत से जोड़कर दिखाने की कुचेष्टा की है। आचार्य बृहस्पति को लोकयात्राविद इसी अर्थ में कहा है कि वे विश्व भर में लोकजीवन के विविध और विराट रूपों के ज्ञाता थे। आचार्य बृहस्पति के अनुसार राजशास्त्र के संदर्भ में वार्ता और दण्डनीति ये दो हीं विद्यायें हैं। चाणक्य कहते हैं – वार्ता दण्डनीतिश्चेति बार्हस्पत्याः। क्यांेकि लोकजीवन का व्यापक ज्ञान और लोकयात्रारूपी समाजव्यवस्था को बाधित करने वालों को दंडित करने वाली दंडनीति – ये दो ही राजशास्त्र का मूल हैं। त्रयी आदि का ज्ञान राजा यानी शासकों के जीवन को गौरव और सार्थकता देता है। उसका राजशास्त्र के संदर्भ में अलग से उल्लेख बृहस्पति उचित नहीं मानते, इतना ही इसका अर्थ है। इस प्रकार आचार्य चाणक्य ने भगवान मनु, आचार्य बृहस्पत, शुक्राचार्य आदि के मतों का उल्लेख करते हुये स्वमत यह दिया है कि – आन्वीक्षकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति ये चारों ही विद्यायें राजशास्त्र के लिये अनिवार्य हैं। (क्रमशः)

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