कांग्रेस पार्टी को कैसे समझें ? (2)

राष्ट्रीय

– प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
इसके साथ ही इस संदर्भ में सर्वप्रथम 90 वर्षों तक लगभग आधे भारत में प्रभावशाली हिन्दुओं के सहयोग से ब्रिटिश शासन ने भारतीय प्रजा के साथ जो व्यवहार किया, उसकी दोहरी प्रकृति को भलीभांति समझना आवश्यक है। मूर्खों की तरह उसे अंग्रेजों की विजय और भारतीयों की गुलामी कहने वाले लिजलिजे और पिलपिले दिमाग वालों के लिये मेरी यह पोस्ट नहीं है। जो सत्य को गंभीरता से समझना चाहें उनके लिये ही यह है।
इंग्लैंड की एक बेहद मामूली और नगण्य सी – ईस्ट इंडिया कंपनी – के विषय में भारत में जितनी गप्पे मारी गईं हैं और झूठ फैलाये गये हैं, वे इन गप्पियों और झुट्ठों की निकृष्टता बताते हैं। सत्य यह है कि यूरोप, उत्तरी अमेरिका, अफ्रीका और भारत में यूरोपीय लुटेरों के लगभग 500 झुंड सक्रिय थे, उनमें से एक है ईस्ट इंडिया कंपनी। वह कोई अंग्रेज राजन्य वर्ग की योजना के अनुसार गठित नहीं हुई थी। जैसा कि स्वयं प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार जॉन ओ फेरेल ने अपनी पुस्तक ‘एन अटर्ली इम्पार्शियल हिस्ट्री ऑफ ब्रिटेन’ (ब्लेक स्वान, लंदन, 2007) में अध्याय 7 में लिखा है – ‘उत्तरी अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका और भारत में यूरोपीय प्रतिस्पर्धी व्यापारियों की जो आपसी लड़ाइयाँ चलीं वे व्यापारिक परियोजना का ही हिस्सा थीं और उनके पीछे न तो कोई भी राष्ट्रीय नीति थी और न ही सैन्य नीति।’
ईस्ट इंडिया कंपनी अपने ही देश से झूठ बोलने और छल करने वाले दस्युबुद्धि अंग्रेजों की कंपनी थी। इंग्लैंड तब तक एक व्यवस्थित समाज नहीं बना था, वहाँ खाने पीने और पहनने ओढ़ने के लाले पड़े थे तथा प्रकृति की प्रतिकूलता के कारण जीवन दूभर था। भयंकर विषम और अन्यायपूर्ण समाजव्यवस्था थी और सामान्य अंग्रेजों को ब्रिटिश राजन्य वर्ग पशुवत ही मानता था तथा स्त्रियों को आत्माविहीन प्राणी मानता था। कोई एक व्यवस्थित पुलिस दल 19वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक लंदन और इंग्लैंड में नहीं था तथा कोई स्टेन्डिंग आर्मी भी नहीं थी। राजा और चर्च एक दूसरे की सहायता भी करते थे और परस्पर छलघात भी करते थे। चर्च के समर्थकों ने एक राजा को तो केवल चर्च के विरोध के लिये मृत्युदंड भी दे दिया था और राजभक्त जनता के विरोध पर इस दंड को छिपाया और छल भी किया था।
बहुत कम लोग जानते हैं कि इंग्लैंड में केवल लंदन और कुछ अन्य शहरों के लिये पुलिस बनाने का विचार 1829 ईस्वी में आया परन्तु व्यवस्थित पुलिस बल इंग्लैंड में 1880 ईस्वी के बाद ही बन पाया और 1897 ईस्वी में उसे भलीभांति व्यवस्थित किया गया। जबकि भारत में 1861 ईस्वी में ही ब्रिटिश प्रशासकों ने पुलिस बल संगठित कर दिया था। इसी प्रकार व्यवस्थित सेना वहाँ 19वीं शताब्दी ईस्वी में ही बनायी जानी शुरू हुई। तब भी प्रथम महायुद्ध में इंग्लैंड के पास व्यवस्थित ‘स्टेन्डिंग आर्मी’ नहीं थी और हर स्वस्थ वयस्क को जबरन भर्ती करने का धंधा जो चला, उसका परिणाम यह हुआ कि प्रथम महायुद्ध में 8 लाख ब्रिटिश सैनिक मारे गये जिनमें से अधिकांश खाइयों में सड़कर मरे न कि युद्ध भूमि में। इसी प्रकार 20 लाख ब्रिटिश सैनिक घायल हुये और संपूर्ण इंग्लैंड में घर-घर में हाहाकार मच गया। सड़कों और गलियों में भूख मिटाने के लिये वैश्यावृत्ति करती स्त्रियाँ और भीख मांगते पुरूष बहुत बड़ी संख्या में संपूर्ण इंग्लैंड में दिखने लगे और सर्वविदित है कि भारतीय सेनाओं के कारण ही इंग्लैंड जीत सका और उसके सैनिकों की जान बच पाई। तुर्की की सेना तो सभी अंग्रेजों को भूनकर रख ही डालती अगर भारतीय राजाओं की ऊंट सेना तथा अन्य सेनायें इंग्लैंड के पक्ष से इंग्लैंड की रक्षा के लिये नहीं गई होती। इस प्रकार इंग्लैंड की भारत में शासन करने की कभी कोई हैसियत ही नहीं थी। केवल भारतीय राजाओं के द्वारा अपने-अपने राज्य का विस्तार करने के लोभ में अंग्रेजों से की गई मैत्री ने ही अंग्रेजों को आधे भारत में 90 वर्षों तक टिकने दिया।
तथाकथित औद्योगिक क्रांति
जिसे भारत में भी कुछ लोग इंग्लैंड की ‘औद्योगिक क्रांति’ बताते हैं, वह वस्तुतः भारत से सड़क बनाने और जहाज बनाने आदि की सीखी गई तकनीकी मात्र है। चेचक का टीका, शल्य चिकित्सा, इस्पात बनाने की विधियाँ, घड़ियाँ और नक्शे, बारूद का प्रयोग तथा आयुर्वेद की जानकारी एवं स्वच्छता और स्वास्थ के नियमों की जानकारी जर्मनी और इंग्लैंड को भारत से ही प्राप्त हुई। बाद में संयोगवश वहाँ भाप का इंजन तथा विमान संबंधी भारतीय प्रयोगों की चोरी करके उन क्षेत्रों में भी विकास किये गये। गणित और विज्ञान वैसे भी सार्वभौम विद्यायें हैं और वह भी उन्होंने भारत से ही सीखी। इसलिये भारत के प्रति कृतज्ञता को छिपाने के लिये पहली बार जानी गई तकनीकी को इंग्लैंड के लोगों ने औद्योगिक क्रांति कहकर प्रचारित किया। उसमें क्रांति केवल इतनी ही थी कि क्रूरता, नृशंसता और पैशाचिकता जोड़ दी गई, जो कि भारतीय व्यवस्था में असंभव थी।
राजनैतिक छीना झपटी को विकास बताना
राजनैतिक छीना झपटी को विकास बताना तथा शांतिपूर्ण संबंध की विवशता होने के कारण एक ओर भारतीय राजन्य वर्ग से मैत्री रखना और दूसरी ओर भारतीय जन के साथ अधिकतम संभव अन्याय और उत्पीड़न करना ब्रिटिश नीति का मर्म है। यह नीति स्वतंत्र भारत के सभी दलों ने पूरी तरह अपना रखी है। उनके आपसी मतभेद सत्ता की छीना-झपटी के लिये स्वाभाविक हैं परंतु सभी दलों के बड़े नेता परस्पर घनिष्ठता से सम्बद्ध हैं और आरक्षण आदि के नाम पर प्रजा के एक वर्ग के संसाधन छीनकर दूसरे वर्ग को देते हुये ब्रिटिश क्रूरता और छलघात को बनाये हुये हैं। छलघात की यह ट्रेनिंग लंदन से लेकर लौटे हुये लोग कांग्रेस में अंग्रेजों की योजना के अनुसार गये। इनमें सबसे अधिक असाधारण प्रतिभा वाले श्रीमान मोहनदास करमचंद्र गांधी जी ही थे। परंतु मुख्य बात यह है कि ब्रिटिश मानस और ब्रिटिश राजनीति तथा उसकी पोषक शिक्षा व्यवस्था को अभी के सभी भारतीय दल पूरी तरह मानते हैं और उसके प्रति ही श्रद्धा रखते हैं। क्योंकि उसमें उन्हें अपने लिये अपरिमित अवसर दिखते हैं। (क्रमशः)

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