वत्स द्वादशी (बछद्वा) 19 अगस्त, मंगलवार को है, क्योंकि इस दिन प्रदोषकाल में द्वादशी तिथि विद्यमान: महंत रोहित शास्त्री, ज्योतिषाचार्य

धर्म

इस वर्ष वत्स द्वादशी (बछद्वा) 19 अगस्त, मंगलवार को है, क्योंकि इस दिन प्रदोषकाल में द्वादशी तिथि विद्यमान है। — महंत रोहित शास्त्री, ज्योतिषाचार्य

यदि किसी कारणवश पूजन 19 अगस्त को न कर सकें तो 20 अगस्त बुधवार दोपहर 02:00 बजे तक पूजन संपन्न किया जा सकता है।

वत्स द्वादशी पूजन हेतु मूँग, चने आदि भिगोने का शुभ मुहूर्त – 18 अगस्त, सोमवार सुबह 06:01 बजे से, संपूर्ण दिन शुभ।

माताएं करती हैं व्रत – संतान की दीर्घायु, सुख एवं सौभाग्य की कामना हेतु।

जम्मू-कश्मीर :- भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को मनाया जाने वाला वत्स द्वादशी व्रत (जिसे बछद्वा, बछवास, ओक दुआस अथवा बलि द्वादशी भी कहा जाता है) जम्मू-कश्मीर सहित देशभर में श्रद्धा, आस्था और उत्साह से मनाया जाता है।

इस अवसर पर श्री कैलख ज्योतिष एवं वैदिक संस्थान ट्रस्ट (पंजीकृत) के अध्यक्ष महंत रोहित शास्त्री, ज्योतिषाचार्य ने जानकारी दी कि वर्ष 2025 में भाद्रपद कृष्ण द्वादशी तिथि का प्रारंभ 19 अगस्त मंगलवार दोपहर 03:30 बजे से होकर 20 अगस्त बुधवार दोपहर 02:00 बजे तक रहेगा। शास्त्रों के अनुसार यह व्रत उस दिन किया जाता है जब प्रदोषकाल में द्वादशी तिथि विद्यमान हो। इस वर्ष प्रदोषकाल 19 अगस्त मंगलवार को आ रहा है, अतः व्रत इसी दिन किया जाएगा। मंगलवार दोपहर 03 बजकर 30 मिनट के बाद द्वादशी तिथि शुरू हो जाएगी।

प्रदोषकाल : 19 अगस्त मंगलवार को शाम 06:31 बजे से 07:41 बजे तक रहेगा।

यदि किसी कारणवश पूजन 19 अगस्त को न कर सकें तो 20 अगस्त बुधवार दोपहर 02:00 बजे तक पूजन संपन्न किया जा सकता है।

मूँग, चने आदि को 18 अगस्त सोमवार सुबह 06:01 बजे के बाद भिगोना शुभ रहेगा, और संपूर्ण दिन उपयुक्त है।

वत्स द्वादशी व्रत का धार्मिक महत्व :

यह व्रत संतान सुख, उनकी दीर्घायु, समृद्धि और उन्नति की कामना से विशेष रूप से माताओं द्वारा रखा जाता है। यह स्त्रियों का प्रमुख पर्व माना जाता है, जिसमें महिलाएं व्रत, पूजन और कथा श्रवण के माध्यम से अपनी संतान की कुशलता की कामना करती हैं।

पूजन विधि एवं परंपराएं :

इस दिन अंकुरित मोठ, मूँग, चने का प्रसाद रूप में प्रयोग होता है।

दलीय अन्न और चाकू से काटी गई वस्तुएं वर्जित मानी जाती हैं।

गाय एवं उसके बछड़े को स्नान कराकर उन्हें वस्त्र पहनाए जाते हैं, चंदन तिलक कर फूलों की माला पहनाई जाती है एवं सींगों को सजाया जाता है।

तांबे के पात्र में जल, अक्षत, तिल, सुगंधित द्रव्य एवं फूल डालकर मंत्रोच्चारण के साथ गौ का अभिषेक किया जाता है।

यदि घर में गाय उपलब्ध न हो तो मिट्टी से बनी गाय-बछड़े की प्रतिमा का पूजन किया जा सकता है।

व्रत के दिन गाय के दूध से बनी वस्तुओं का सेवन वर्जित होता है, परंतु गाय को उड़द से बने भोज्य पदार्थ अवश्य खिलाने चाहिए।

पूजन के उपरांत वत्स द्वादशी व्रत कथा सुनी जाती है तथा रात्रि में गौमाता और इष्टदेव की आरती कर व्रती भोजन ग्रहण करते हैं।

व्रत कथा (संक्षेप में):

मान्यता है कि भाद्रपद कृष्ण द्वादशी को भगवान श्रीकृष्ण पहली बार बछड़ों को चराने वन में गए थे। माता यशोदा ने पूजा-अर्चना के बाद गोपाल को गायों के द्वार खोलने की आज्ञा दी। उन्होंने बलराम से कहा, “बछड़ों को दूर मत ले जाना, श्रीकृष्ण को अकेला मत छोड़ना।” इसी पावन तिथि को गोवत्सार्चन के रूप में गोपाल उत्सव मनाया जाता है। विभिन्न शास्त्रों में इस दिन की अन्य कथाएं भी वर्णित हैं, परंतु यह कथा सर्वाधिक प्रमुख मानी जाती है।

महंत रोहित शास्त्री
(ज्योतिषाचार्य)
प्रधान, श्री कैलख ज्योतिष एवं वैदिक संस्थान ट्रस्ट (पंजीकृत)
रायपुर (ठठर), जम्मू-कश्मीर
संपर्क : 9858293195, 7006711011
ईमेल : rohitshastri.shastri1@gmail.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *