*साले !*
उत्तराखंड के संसदीय कार्य मंत्री *प्रेम चंद अग्रवाल* के इस शब्द पर पहाड़ उबल पड़ा है…उबलना स्वाभाविक था…न उबलता तो हैरत होती।
आखिर, गाली किसी को भी कैसे बर्दाश्त होगी। गर मंत्री जी को भी कोई यह कहता, तो उनमें भी गुस्से की धार इतनी ही होती या इससे भी कहीं अधिक।
खैर, सवाल यह है कि आखिर यह गाली निकली कैसे…मन के भीतर कुछ तो गुबार होगा, जो अचानक फूट पड़ा।
दरअसल, *साले* सिर्फ क्षणिक आवेश में नहीं, बल्कि स्थानीय-गैर स्थानीयता के भीतर-भीतर पलते आक्रोश से फूटा है…यह आक्रोश भी आज और कल का नहीं, सालों से पलती नाराजगी की नुमाइश है।
*साले* का मुखर होने का अर्थ है नाराजगी का भाव मन के भीतर कहीं गहरे धंसे हुआ है।
सर्वविदित है कि मैदानी और पहाड़ी का भेद आपस में बहुत गहरे पसरा है। हम चाहे जितना आंख मूंद लें, पर यह एक दरार है, जो समय-समय पर प्रकट हो ही जाती है। हाल में ऋषिकेश चुनाव भी इसी *साले* की अभिव्यक्ति ही थी।
कुछ इस अंदाज़ में कि *पहाड़ पहाड़ियों की बपौती थोड़े ना है* और दूसरी तरफ से भी साफ था कि *घर मेरा है, तो कब्ज़ा भी मेरा ही होना चाहिए।*
यह भाव *बाहरी* का दंश झेल रहे परिचितों के वार्तालाप में भी झलकता है और *बाहरियों* का *दखल* झेल रहे अपनों के जज़्बातों से भी।
कहना न होगा *साले* का आक्रोश दूतरफा है।
कारण बेशक जुदा हों।
दरअसल, दिक्कत ये है कि दोनों तरफ एक-दूसरे को स्वीकार करने की भावना का अभाव है। भौतिक युग है…आपस की संस्कृति में समरस हो जाने की बजाय एक-दूसरे पर हावी होने की भावना मुखर है…और यही टकराव का मूल कारण है।
परंतु, ऐसा नहीं कि स्थानीय और गैर स्थानीय लोगों में सदा टकराव की स्थिति रही हो। गर वर्तमान को खंगालते हुए अतीत के पन्ने पलटें, तो यह एक बेहद खूबसूरत रिश्ते के रूप में भी नज़र आयेगा। जब बाहरी समुदाय के बहुत से लोग उत्तराखंड की संस्कृति में इस कदर घुल-मिल गए, रच-बस गए कि उनके बाहरी होने का खयाल ही गुम हो गया।
*सामंत, जोशी, पंत, पंवार* जैसे कई ऐसे उपनाम हैं। जो कई पीढ़ी पहले उत्तराखंड आए और यहीं के होकर रह गए। लगता ही नहीं कि यह उपनाम वाले लोग कभी पहाड़ी नहीं थे। वे बकायदा पहाड़ी संस्कृति में घुल ही नहीं गए, बल्कि अपना पारिवारिक विस्तार भी पहाड़ियों के बीच करके पूरे पहाड़ी हो गए।
इन बाहरी उपनामों के साथ कभी टकराव की स्थिति नहीं बनी। क्योंकि तब एक-दूसरे की संस्कृति को आदरपूर्वक स्वीकार करने की भावना थी।
आज उत्तराखंड में स्थानीय और गैर स्थानीय लोगों में जो टकराव हो रहा है, उसका कारण एक-दूजे के सामाजिक और सांस्कृतिक वज़ूद को खारिज करने और नीचा दिखाने की कोशिश है।
इस मामले में *पंजाबी, मराठी और हिमाचली* समाज ने उदारवादी रुख अपनाया है। एक-दूसरे की बोली-भाषा भी अपनाई और रोटी-बेटी का रिश्ता भी अपनाया। नतीजतन पहाड़ी और *पंजाबी-हिमाचली व मराठियों* के बीच स्थानीयता के मुद्दे पर टकराव ना के बराबर है।
जबकि *बिहार, राजस्थान, हरियाणा* आदि प्रदेशों के साथ भिड़ंत मुखर है। वैचारिक धुंध छाई है। जो छंटने की बजाय बढ़ती जा रही है। इन प्रदेशों से नए आए लोगों की अंधाधुंध संख्यात्मक उपस्थिति और अर्थ के वैभव की नुमाइश से पहाड़ियों के मन में उनके *हितों पर सेंध* की आशंका ने जन्म लिया है। उनकी मुखर उपस्थिति से पहाड़ी मन आशंकित है। नवांगतुक *परदेसियों* की अति महत्वाकांक्षा का शमन न कर पाने की ख़ीज़ भी स्थानीय लोगों के गुस्से का कारण है।
अर्थात, मौजूदा टकराव के मूल में वे कुछ लोग हैं, जो राज्य बनने के बाद उत्तराखंड आए और यहां के संसाधनों का दोहन करके रातों-रात अमीर बन गए…और इन्हें साथ मिला उन कुछ लोगों का, जो सालों से इस जमीन में बसे हुए हैं…लेकिन वे ‘अपनों’ को बढ़ाने के फेर में स्थानीय ‘अपनों’ से टकरा बैठे हैं।
*बस! यही पेंच खतरनाक है।*
*केशरसिंह बिष्ट*