परिवार केवल रक्त-संबंध नहीं, बल्कि संस्कृति, सहअस्तित्व और आत्मबल का सबसे बड़ा विद्यालय है

राष्ट्रीय

जो परिवार से विमुख हुआ, वह भविष्य से विमुख हुआ

21वीं सदी की चमकती दुनिया में इंसान ने मशीनों को तो अपना साथी बना लिया, पर अपने ही लोगों को भुला दिया। रिश्ते अब ‘ऑनलाइन’ हैं, आत्मीयता ‘ऑफ़लाइन’। प्रो. दयानंद तिवारी इस लेख में चेतावनी देते हैं कि जो व्यक्ति परिवार को महत्व नहीं देता, वह अंततः अपने ही अस्तित्व को नष्ट कर देता है। परिवार केवल रक्त-संबंध नहीं, बल्कि संस्कृति, सहअस्तित्व और आत्मबल का सबसे बड़ा विद्यालय है — इसे बचाना ही सभ्यता को बचाना है।

“कुटुम्बं कुटुंभस्य जीवनाय परं बलम्।”

परिवार ही मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च बल है।

21वीं सदी विज्ञान, तकनीक, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और वैश्वीकरण का युग है। मनुष्य के हाथ में मोबाइल है, पर उसके पास अपने ही लोगों के लिए समय नहीं है। वह विश्व से जुड़ा है, पर अपने परिवार से कटा हुआ है। यही आधुनिकता की त्रासदी है — जिसे सब कुछ मिल गया, पर घर का अपनापन खो गया।
आज रिश्ते ‘नेटवर्क’ बन गए हैं, और संवेदनाएँ ‘डेटा’। यह वही दौर है जहाँ सुविधा बढ़ी है पर संबंध सूख गए हैं। जो परिवार से विमुख हुआ, उसने जीवन के सबसे बड़े सहारे को खो दिया।

परिवार का सनातन महत्व

‘परिवार’ शब्द ‘परि’ और ‘वार’ से बना है — जिसका अर्थ है चारों ओर से रक्षा करने वाला।
भारतीय परंपरा में कहा गया है —

“कुटुम्बं कुटुंभस्य जीवनाय परं बलम्।”
अर्थात् परिवार ही जीवन का सबसे बड़ा बल है।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा कि –

“कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।”
जब कुल नष्ट होता है, तो उसके धर्म, मूल्य और संस्कार मिट जाते हैं।
यह केवल श्लोक नहीं, एक चेतावनी है — जो परिवार को तोड़ेगा, वह स्वयं बिखर जाएगा।

आधुनिक जीवन का भ्रम और विघटन

आज का मनुष्य महत्वाकांक्षी है, पर संवेदनहीन भी।
पश्चिमी प्रभाव में ‘न्यूक्लियर फैमिली’ यानी लघु परिवार की प्रवृत्ति ने संयुक्त परिवारों की जड़ों को कमजोर किया है।
परिणामस्वरूप —
वृद्ध माता-पिता उपेक्षित हैं,
बच्चे मोबाइल की स्क्रीन में गुम हैं,
पति-पत्नी के बीच संवाद मर गया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, अवसाद और एकाकीपन आज 21वीं सदी की सबसे बड़ी मानसिक बीमारी बन चुके हैं।
और यह बीमारी ‘वायरस’ से नहीं, टूटे हुए परिवारों से पैदा हुई है।
भौतिक सुख के नाम पर मनुष्य ने सबसे बड़ी भूल की है —
संबंधों की कीमत पर सुविधा का सौदा किया है।

धर्म और शास्त्रों की चेतावनी

हमारे शास्त्रों में परिवार को ‘धर्म की प्रथम पाठशाला’ कहा गया है।
रामायण में श्रीराम का आदर्श केवल राजा का नहीं, पुत्र और भ्राता का भी है।
महाभारत में भीष्म, विदुर, युधिष्ठिर — ये सब परिवार-निष्ठा के प्रतीक हैं।
मनुस्मृति कहती है —

“पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने, पुत्रो रक्षति वार्धके।”
यह केवल सुरक्षा नहीं, बल्कि जिम्मेदारी का सनातन विधान है।
जो इसे नकारता है, वह अपने ही वंश के भविष्य से विश्वासघात करता है।

विचारकों की दृष्टि

महात्मा गांधी ने कहा था —
“भारत की आत्मा परिवारों में बसती है।”
स्वामी विवेकानंद ने चेताया था —
“जो अपने परिवार का भला नहीं सोच सकता, वह राष्ट्र का भी हित नहीं कर सकता।”
समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम का मत था —
“परिवार समाज की एकता का मूल है; इससे कटे व्यक्ति समाज में अराजकता फैलाते हैं।”

इन सबका सार एक है —
परिवार से विमुख व्यक्ति स्वयं अपनी जड़ों से अलग होकर खोखला हो जाता है।

परिवार की एकता के अमूल्य लाभ

संस्कारों की निरंतरता: बच्चे घर से ही श्रद्धा, सेवा और संवेदनशीलता सीखते हैं।
मानसिक स्थिरता: परिवार वह औषधि है जो अवसाद और भय दोनों को मिटा देती है।
आर्थिक सहारा: संयुक्त परिवार में साझे संसाधन स्थिरता और सुरक्षा देते हैं।
सामाजिक ढाल: संकट के समय परिवार ही सबसे बड़ा सहारा होता है।
राष्ट्र निर्माण: परिवार ही “मिनी भारत” है, जहाँ से चरित्रवान नागरिक निकलते हैं।

अब भी समय है — नहीं तो देर हो जाएगी

तकनीक ने हमें जोड़ा जरूर है, पर दिलों को दूर कर दिया है।
त्योहार अब “सेल्फ़ी अवसर” बन गए हैं, न कि साथ बैठने का मौका।
अब भी समय है —
भोजन साथ करें,
बड़ों का सम्मान करें,
बच्चों को परंपरा और कथा सुनाएँ,
घर को केवल मकान नहीं, मंदिर बनाएँ।

जो अपने परिवार को समय नहीं देता, एक दिन समय उसे अकेला छोड़ देता है।
और जो अपने बड़ों का अपमान करता है,
वह अपने बच्चों से वही व्यवहार पाएगा — यह प्रकृति का अटल नियम है।

अतः परिवार केवल खून का रिश्ता नहीं — यह जीवन की सबसे बड़ी तपशाला है।
जहाँ परिवार टूटता है, वहाँ सभ्यता ढहती है।
जो घर “स्वतंत्रता” के नाम पर “स्वार्थ” का अड्डा बन जाता है,
वह अंततः मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक बर्बादी की ओर बढ़ता है।

अतः चेत जाइए —
जो परिवार से विमुख हुआ, वह भविष्य से विमुख हुआ।
संस्कार, संबंध और सहअस्तित्व ही मनुष्य को मनुष्य बनाए रखते हैं।

जैसा कि तुलसीदास ने कहा है —

“जहाँ सुमति तहँ संपत्ति नाना, जहाँ कुमति तहँ विपत्ति निदाना।”
जहाँ परिवार में सद्बुद्धि और एकता है,
वहाँ सुख, समृद्धि और ईश्वर तीनों निवास करते हैं।

प्रो. दयानंद तिवारी —

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