स्वामी विवेकानंद के शिकागो विश्व धर्म संसद के उद्बोधन की 132 वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में मातृभूमि शिक्षा मंदिर द्वारा सनातन धर्म संवाद कार्यक्रम मातृभूमि सेवा मिशन के तत्वावधान में संपन्न।
स्वामी विवेकानंद जी ने साम्प्रदायिकता को धर्म व सभ्यता का सबसे बड़ा दुश्मन बताया था।
कुरुक्षेत्र।
स्वामी विवेकानंद का शिकागो भाषण न केवल अलंकृत शब्दों का संग्रह था, बल्कि भारत के प्रति विश्व के दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने भारतीय समाज में विश्वास को पूरी तरह से बदल दिया और नया रूप दिया। स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो विश्व धर्म संसद में भारतीय संस्कृति की वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से सम्पूर्ण विश्व को परिचित कराया। सभी धर्मों का सम्मान करने वाली भारत की सदियों पुरानी धर्म संस्कृति का परिचय विवेकानंद ने इस प्रकार दिया कि उन कुछ क्षणों मे ही भारत का नाम, जिसे कभी विश्व उपहास की दृष्टि से देखता था, आध्यात्मिक उत्कृष्टता के शीर्ष पर स्थापित हो गया। यह विचार स्वामी विवेकानंद के शिकागो विश्व धर्म संसद के उद्बोधन की 132 वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में मातृभूमि शिक्षा मंदिर द्वारा आयोजित सनातन धर्म संवाद कार्यक्रम में मातृभूमि सेवा मिशन के संस्थापक डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने व्यक्त किये। कार्यक्रम का शुभारम्भ मातृभूमि शिक्षा मंदिर के विद्यार्थियों द्वारा स्वामी विवेकानंद के चित्र के समक्ष विश्व मंगल की प्रार्थना से हुआ। मातृभूमि शिक्षा मंदिर के विद्यार्थियों ने स्वामी विवेकानंद के जीवन एवं कार्य से संबंधित अनेक प्रेरक प्रसंग एवं संस्मरण प्रस्तुत किये।
सनातन धर्म संवाद कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए मातृभूमि सेवा मिशन के संस्थापक डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा स्वामी विवेकानंद भारत के ऐसे महापुरुष है जिन्होंने भारतीय संस्कृति और यहाँ की आध्यात्मिक चेतना का परचम पूरे विश्व मे फहराया है। अपने ज्ञान, संकल्प शक्ति तथा आत्मबल के माध्यम से ना केवल उन्होंने भारत के लोगों को जागृत किया वरन संपूर्ण विश्व में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का लोहा मनवाया। इसी क्रम मे 11 सितंबर 1893 को शिकागो विश्व धर्म संसद में भारत के हिंदुत्व, आध्यात्मिकता व भारतीय दर्शन पर दिया गया उनका भाषण ऐतिहासिक महत्व रखता है। स्वामी विवेकानंद जी ने अपने शिकागो भाषण में गर्व से कहा था कि “मैं एक ऐसे धर्म से हूँ जिसने विश्व भर को सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया।” उन्होंने कहा था कि हमारी सभ्यता लोगों को एकता के सूत्र में पिरोने वाली रही है। स्वामी विवेकानंद जी ने साम्प्रदायिकता को धर्म व सभ्यता का सबसे बड़ा दुश्मन बताया था।
डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा जिस समय स्वामी जी ने भारतीय संस्कृति को विश्व भर में प्रतिष्ठित किया उस समय भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था। पराधीनता की बेड़ियों मे फंसा हुआ हमारा देश गुलामी के साथ साथ सामाजिक रूढ़ियों और पुरातनपंथी परंपराओं मे भी बद्ध था। इसी समय स्वामी विवेकानंद ने अपने समर्थ गुरु रामकृष्ण परमहंस के मार्गदर्शन में अपनी आध्यात्मिक चेतना विकसित की और दिशाहीन भारतीय समाज को धर्म व संस्कृति के सही व सटीक पहलुओं से अवगत कराया। ऐसे समय मे जब ईसाई धर्मांतरण तीव्र गति से फैल रहा था , स्वामी जी ने प्रत्येक भारतवासी के हृदय में अपने धर्म और संस्कृति के प्रति सम्मान जागृत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने धर्म को रूढ़ियों से मुक्त कर सहज सरल जीवन शैली के रूप मे स्थापित किया जिसका मूल तत्व सेवाभाव और आत्मीयता थे।
डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा स्वामी विवेकानंद ने अपनी जिज्ञासा, सत्यनिष्ठा और कर्मयोग को युवाओ के लिए एक आदर्श के रूप मे स्थापित किया। विभिन्न पूजा पद्धतियों, कर्मकांडों, अनुष्ठानों इत्यादि के ऊपर उन्होंने एक मात्र धर्म सेवा को स्थान दिया। भारतीय संस्कृति के वैश्विक प्रसार तथा भारत में आध्यात्मिक और धार्मिक चेतना के पुनर्जागरण के लिए देश सदैव उनका ऋणी रहेगा। उनकी गुरु भक्ति , सांस्कृतिक चेतना और देशप्रेम आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा स्त्रोत है। कार्यक्रम में मातृभूमि शिक्षा मंदिर के बच्चों को परितोषिक भी प्रदान किया गया। कार्यक्रम में आश्रम के सदस्य, विद्यार्थी, शिक्षक आदि उपस्थित रहे।
