हरिद्वार । देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्रद्धेय डॉ प्रणव पण्ड्या ने कहा कि सात्विक साधना से साधक के जीवन में रूपांतरण होता है। साधना ऐसी होनी चाहिए जिससे बाह्य और आंतरिक दोनों में परिवर्तन हो। साधक का समर्पण समग्र होना चाहिए, तभी भगवान की विशेष कृपा के अधिकारी बन पाते हैं।
श्रद्धेय डॉ पण्ड्या देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के मृत्युंजय सभागार में शारदीय नवरात्र के अवसर पर आयोजित सत्संग शृंखला के सातवें दिन उपस्थित साधकों को संबोधित कर रहे थे। इस अवसर पर देश विदेश से आये गायत्री साधकों के अलावा देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के विद्यार्थी, प्रोफेसर्स एवं शांतिकुंज के अंतःवासी कार्यकर्त्ता भाई बहिन उपस्थित रहे।
गीता मर्मज्ञ श्रद्धेय डॉ. पण्ड्या ने कहा कि साधना से चित्त की शुद्धि होती है और वह अविद्या पर प्रहार करती है। जब साधक का सद्गुरु-भगवान सफाई और रंगाई करता है, तब वह सफलता की उंचाई को छूता है। उसका व्यक्तित्व निखरता है और साधक का अंतःकरण पवित्र होता है। उन्होंने कहा कि आज ऐसे संन्यासियों की आवश्यकता है जो द्वेष रहित हो और प्रत्येक वर्ग को शुभ, अशुभ कार्यों में भेद बता सके। श्रीमद्भगवत गीता के श्लोकों का उल्लेख करते हुए अखिल विश्व गायत्री परिवार प्रमुख श्रद्धेय डॉ पण्ड्या ने संन्यास की सम्यक व्याख्या की। उन्होंने कहा कि सच्चे संन्यासियों को लोकवासना, अहंकार जैसे दोष से सदैव बचना चाहिए। भगवान बुद्ध, महावीर, पं श्रीराम शर्मा आचार्य आदि ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने आदर्श संन्यासी का जीवन जिया और उन्होंने अपने जीवन को इतना प्रकाशवान बना लिया, जिससे अनेक साधक प्रेरणा लेते हैं। इस अवसर पर देसंविवि के अभिभावक श्रद्धेय डॉ. पण्ड्या ने साधकों एवं विद्यार्थियों की साधनात्मक जिज्ञासाओं का भी समाधान किया।
इससे पूर्व युगगायकों ने ‘माँ इतनी कृपा कर दे, बस इतनी दया कर दें..’ भक्ति गीत को सितार, बांसुरी आदि भारतीय वाद्ययंत्रों से प्रस्तुत कर उपस्थित छात्र-छात्राओं, शिक्षक-शिक्षिकाओं, देसंविवि व शांतिकुंज के अनेक कार्यकर्त्ताओं को भक्तिभाव में स्नान कराया।